Monday, April 11, 2022

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता

 

वह शक्ति ही इस विश्व को जन्म देती है, उसका पालन करती है और उसका विनाश भी करती है


यह सम्पूर्ण विश्व शक्तिमय है। नास्तिक व्यक्ति को भी अन्ततोगत्वा यह स्वीकार करना पड़ता है कि संसार में ऐसी कोई अदृश्य शक्ति अवश्य है, जिसके कारण यह ब्रह्मांड निश्चित नियमों से बंधकर अपने यात्राक्रम को आगे बढ़ा रहा है, भले ही वह व्यक्ति उस अदृश्य शक्ति को ईश्वर न मानकर प्रकृति का नाम दे। वह शक्ति ही इस विश्व को जन्म देती है, उसका पालन करती है और उसका विनाश भी करती है। इस कार्यसंचालन के लिए हमारे यहां तीन देवताओं की कल्पना की गई है। ब्रह्मा, सृष्टि को जन्म देते हैं, विष्णु उसका पालन करते हैं और रुद्र उसका संहार करते हैं। वैदिक साहत्यि में ‘शक्ति सृजति ब्रह्मांडम्’ कहकर जिसकी ओर इंगित किया गया है, वह देवी दुर्गा ही हैं। देवी भागवत (7-7) में उनके विराट स्वरूप का वर्णन किया गया है।
शक्ति के रूप में देवी की उपासना का स्पष्ट वर्णन हमें हरिवंश तथा मार्कण्डेय पुराण में पढ़ने को मिलता है। इस प्रकार इस देवी में सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति निहित है।

इत्थं यदा-यदा बाधा दानवोत्था भवष्यिति।
तदा तदावतीर्याहं करष्यिाम्यरिसंक्षयम् ।।

अर्थात जब-जब संसार में दानवी बाधा उपस्थित होगी तब-तबमैं अवतार लेकर शत्रुओं का संहार करूंगी।

सभ्यता के प्रारंभिक युग में, विश्व में सर्वत्र मातृप्रधान परिवार थे। महिलाएं ही परिवार की मुखिया होती थीं और पुरुष उनके अधीनस्थ। ऐसी स्थिति में इस अदृश्य शक्ति की कल्पना स्त्री रूप में होना सहज स्वाभाविक था। मातृशक्ति के रूप में इस आदिदेवी की उपासना के प्रमाण हमें सिंधु सभ्यता के अवशेषों में भी मिले हैं। केवल भारत में ही नहीं, विश्व के अन्य अनेक देशों में भी हमें देवी के रूप में भी शक्तिपूजन देखने को मिलता है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्यै नमस्तस्यै नमो नम:
या दैवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता

ऋग्वेद के देवीसूक्त, और सामवेद के रात्रिसूक्त में शक्ति स्वरूपा इस आद्यदेवी की प्रशंसा में अनेक मंत्र है। इनमें देवी के अनेक नामों का उल्लेख किया गया है। विंध्याचल देवी-धाम में तीन ही देवियों के मन्दिर हैं, जिन्हें शक्तिपीठ कहा जाता है। ये हैं महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती।
एक हिंसक शक्ति की प्रतीक हैं, दूसरी धनशक्ति की तथा तीसरी विवेक शक्ति की। श्री चण्डी नामक ग्रन्थ में तो देवी के सैकड़ों नामों की चर्चा की गई है। बौद्ध धर्म में अन्य देवियों के अतिरक्ति अभयादेवी की भी चर्चा है, जिनकी चरणवन्दना महात्मा बुद्ध ने कपिलवस्तु आने पर की थी। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह अभयादेवी और कोई नहीं, दुर्गा देवी ही थीं।

दुर्गा-पूजा की पद्धति का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख 11वीं शताब्दी में मिलता है, जब बंग नरेश हरिवर्मा देव के प्रधानमंत्री भवदेव भट्ट ने दुर्गापूजा की। मगर उन्होंने भी अपने किसी पूर्ववर्ती जीवक बालक तथा श्रीकर नामक व्यक्तियों का उल्लेख किया, जिनके ग्रन्थों से उन्होंने वह पूजा पद्धति ग्रहण की। इसका अर्थ यह हुआ कि दुर्गापूर्जा की पद्धति 11वीं शताब्दी से पहले ही लिखी जा चुकी थी जो आज उपलब्ध नहीं है। इसके उपरान्त 14वीं शताब्दी में वाचस्पति मिश्र ने दुर्गापूजन का विस्तृत वर्णन किया।

बंगाल के पं. रघुनन्दन ने अपने पूर्ववर्ती लेखकों की सहायता से दुर्गापूजा की जो विधि तैयार की, वह अत्यधिक लोकप्रिय हुई। दुर्गा-पूजा में 16वीं शताब्दी के राजा कंसनारायण का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने अपने पुरोहित रमेश शास्त्री के परामर्श पर बहुत बड़े पैमाने पर दुर्गापूजा की, जिस पर उन दिनों साढ़े आठ लाख रुपए खर्च हुए। यह उत्सव राजा कंसनारायण ने अपने क्षेत्र राजशाही (बंगाल) प्रान्त के ताहिरपुर में आयोजित किया था।
कहा जाता है कि तभी से बंगाल में दुर्गापूजा को विशेष लोकप्रियता मिली। इसी पूजापद्धति को कंसनारायण पद्धति कहा जाता है। राजा कंसनारायण के बाद 16वीं तथा 17वीं शताब्दी में दुर्गा-पूजा पद्धति पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए, जो आज बहुतायत से प्रचलित हैं।

वैसे तो जीवन में शक्ति उपासना तथा उसके प्रतीक के रूप में देवी-पूजन नित्य का कार्य है, लेकिन देवी-पूजन का विशेष उत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। प्रथम, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से रामनवमी तक, जिसे राम-नवरात्र अथवा वासन्तिक नवरात्र कहते हैं। इनमें दुर्गा-नवरात्र का विशेष महत्व है

धैर्य से अवश्य सिद्ध होगा हमारा लौटने का संकल्प

 

कश्मीरी नववर्ष उत्सव ‘नवरेह’ के अवसर पर कश्मीरी हिन्दू समुदाय को संबोधित किया। संजीवनी शारदा केन्द्र, जम्मू द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में सरसंघचालक ने स्पष्ट कहा कि धारा 370 हटने के बाद अब कश्मीरी हिन्दुओं का बहुत जल्द घाटी में अपने घरों को लौटना तय है। लेकिन तब तक संकल्प पक्का रखते हुए उद्यम करते जाना होगा


3 अप्रैल को रा. स्व. संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने वचुर्अल माध्यम से कश्मीरी नववर्ष उत्सव ‘नवरेह’ के अवसर पर कश्मीरी हिन्दू समुदाय को संबोधित किया। संजीवनी शारदा केन्द्र, जम्मू द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में सरसंघचालक ने स्पष्ट कहा कि धारा 370 हटने के बाद अब कश्मीरी हिन्दुओं का बहुत जल्द घाटी में अपने घरों को लौटना तय है। लेकिन तब तक संकल्प पक्का रखते हुए उद्यम करते जाना होगा, यहां श्री भागवत के उसी संबोधन के संपादित अंश प्रस्तुत हैं

नवरेह समारोह एक नये पर्व के प्रारंभ का द्योतक है। यह एक संकल्प का भी दिवस है। तीन दिन के इस समारोह में हम अपने पूर्वजों, महापुरुषों के व्यक्तित्व-कृतित्व का स्मरण करते हैं। उससे प्रेरणा लेते हैं। उससे कुछ बोध प्राप्त करके आगे बढ़ने का संकल्प करते हैं। इसीलिए इसे आज एक नया नाम दिया गया है-शौर्य दिवस। इस महोत्सव के आखिरी दिन को यह एकदम उचित नाम दिया गया है। हमने संकल्प लिया है तो इसकी पूर्ति के लिए कुछ शौर्य, कुछ उद्यम हमको करना ही पड़ता है। हमारे पास उद्यम है, साहस है, धैर्य है। जब हम बुद्धि, शक्ति और पराक्रम को समन्वित करके शौर्य दिखाते हैं तब दैवीय सहायता भी प्राप्त होती है। जीवन में सब प्रकार की परिस्थितियां आती हैं। परिस्थितियां आती हैं, तो जाती भी हैं। परिस्थितियों को लेकर हमारी एक कसौटी होती है जिसको पार करके हमारी क्षमता में और वृद्धि होती है। इसलिए उस परिस्थिति में अपने उद्यम, पराक्रम, धैर्य, साहस का महत्व होता है। उसी के आधार पर उस परिस्थिति को हम पार भी करते हैं।

संकल्प की शक्ति
आज हम एक ऐसी ही परिस्थिति में हैं। हम अपने ही देश में, अपने घर से विस्थापित होने का दंश झेल रहे हैं। लेकिन, यह परिस्थिति आज की नहीं है, यह पिछले तीन-चार दशकों से लगातार चली आ रही परिस्थिति है। परंतु आखिर इसमें से उपाय क्या है? पहला उपाय है कि हम इस परिस्थिति के सामने हारें नहीं। हमने इस परिस्थिति को पार करके विजय पाने का संकल्प लिया है। यह संकल्प महत्व की बात है। संकल्प लिया है कि अगले वर्ष अपने घर में, अपने प्रदेश में होंगे। यह संकल्प शक्ति बहुत महत्वपूर्ण है। आप जानते हैं कि अपनी भूमि से बिछडकर इज्राएल के लोग भी परिस्थिति के चलते दुनिया भर में बिखर गए थे। परंतु उनका भी एक त्योहार होता है ‘पासओवर’, जिस दिन वे संकल्प लेते हैं कि अगले वर्ष यरुशलम में होंगे। इस संकल्प को उन्होंने 1800 वर्ष तक जाग्रत रखा। पहले 1700 वर्ष तो केवल संकल्प रहा। उस संकल्प के आधार पर आगे कुछ होने की बात ही नहीं थी। कुछ होगा, ऐसा लगता भी नहीं था। लेकिन सौ साल में उन्होंने फिर से उसी भूमि में एक स्वतंत्र इज्राएल को स्थापित किया और अगले 30 वर्ष में सब बाधाओं का शाश्वत इलाज करके वह इज्राएल आज दुनिया के अग्रणी राष्ट्रों में से एक बना है।

हम विस्थापित होकर दुनियाभर में बिखरे तो हैं परंतु हमारे पास एक भूमि और है-हमारा कश्मीर, जो कि भारतवर्ष का अंग है। वह भारतवर्ष अपने पास है और केवल अपने पास है, ऐसा नहीं। पूरा भारतवर्ष हम लोगों के साथ है। उस साथ के चलते परिस्थितियां बदल भी रही है। उसका साक्ष्य फिर से हाल में मिला है

समय लगता है। प्रयास करने पड़ते हैं। लेकिन समय आने पर फल भी मिलता है। आज वह समय आया है। हमें धैर्यपूर्वक अपना उद्यम जारी रखना है। हम अपनी शर्तों पर वहां जाकर बसें, इसके लिए जो जो प्रयास करने हैं, वे करने ही हैं। इस प्रयास में सारा देश आपके साथ है। आपको केवल वहां बसना नहीं है, फिर से ऐसे उजड़ने की नौबत न आए इसलिए संपूर्ण भारत का अभिन्न अंग बनकर संपूर्ण भारत की मजबूत और जाग्रत सुरक्षा की छाया में हमको रहना है।

एक फिल्म आई है। विस्थापन की विभीषिका का सच संपूर्ण दुनिया में सामने लाने वाली फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’। उसकी चर्चा चल रही है। अब उसका विश्लेषण करके बहुत सारी बारीकियां खंगालकर कुछ लोग उसके पक्ष में, कुछ उसके विपक्ष में, कुछ लोग ‘आधा मानो-आधा बदलो’ बोलने वाले दिखते हैं। परंतु भारतवर्ष का सामान्य जनमानस यह कह रहा है कि इस विदारक सत्य को फिर से सारी दुनिया के सामने लाकर इस फिल्म ने न केवल कश्मीर के विस्थापित लोगों की व्यथा हमारे सामने रखी, बल्कि हमको झकझोर कर जगाया है। हमको कितना सजग रहना चाहिए, इसका भान हुआ है। हम सबक कर्तव्य है कि इस अन्याय का परिमार्जन हो। इस प्रकार की भावनाएं आज सारे भारत में हैं। जब ऐसा भाव है, तब नि:संदेह अगले वर्ष हम अपने घर में होंगे। अपनी भूमि पर रहेंगे। जहां हमारा घर-बार था, वहां वह फिर से होगा। यह जो अपना संकल्प है उसकी पूर्ति में अब बहुत दिन बाकी नहीं हैं। वह संकल्प निश्चित ही पूर्ण होने वाला है और शीघ्र पूर्ण होने वाला है।

उद्यम का ही महत्व
परंतु कोई संकल्प अपने आप पूर्ण नहीं होता है। इसके पूर्ण होने तक सतत परिश्रम करना पड़ता है। समुद्र मंथन का एक वर्णन है। उसमें कितने ही रत्न प्राप्त हुए, लेकिन उन रत्नों के कारण देवों ने अपना प्रयास बंद नहीं किया। उनको चाहिए था अमृत। उसके बिना समाधान नहीं था। इसके पहले उन्हें दुनिया के अलौकिक रत्न मिले, लेकिन उससे वे संतुष्ट नहीं हुए। सारी दुनिया को जलाकर भस्म कर दे, इस प्रकार का भयंकर हलाहल भी उसमें से निकला। लेकिन भय के मारे देवों ने अपना उद्यम बंद नहीं किया। देवों में ही एक साक्षात् शिवजी ने उस हलाहल को अपने कंठ में धारण करके सारे विश्व को उसके दाह से बचा लिया। लेकिन मंथन चलता रहा। अमृत के बिना विश्राम नहीं था, क्योंकि जो धैर्यशाली होते हैं, जो धीर होते हैं, वे अपने संकल्प की प्राप्ति के बाद ही विश्राम करते हैं। ऐसा शीघ्र होगा, लेकिन हमको प्रयास जारी रखना है। अब बात है कि वह प्रयास कैसे होगा? उसका मार्गदर्शक है हमारे पूर्वजों का चरित्र। बुद्धि, शक्ति, पराक्रम अपनी क्षमताएं हैं, जो हमारे पास हैं। ये हमने एक बार नहीं, हजार बार सिद्ध की हैं। इस विस्थापन के कारण अपनी भूमि से उखड़कर संपूर्ण दुनिया में फैलने के बाद भी हम लोगों का बुद्धि, शक्ति और पराक्रम से अपने आपको जीवन में स्थिर करने का प्रयास अयशस्वी नहीं है। हमने उसको अभी तक तात्कालिक रूप से जारी रखा है। इसलिए कि हमको फिर से वापस जाना है।

हमारी क्षमता है कि दुनिया में कहीं भी बस सकते हैं। लेकिन हमारा संकल्प है कि हम अपनी भूमि में ही बसेंगे। इसलिए बुद्धि, शक्ति, पराक्रम की जो हमारी क्षमता है उसका लोहा तो सारी दुनिया ने माना है। परंतु उद्यम आवश्यक है। आनंद की बात है कि पिछले बार शिवरात्रि में मैं आपके बीच था, तब मैंने कहा था कि आपको देखकर मुझे हिम्मत मिलती है। आपने जो अपने जीवन में उद्यम किया है, अपने जीवन में प्रसन्नता कायम रखकर आगे बढ़ने के लिए आपका जो सतत् प्रयास है उसके लिए मैंने आपका अभिनंदन किया था। मैंने यह कहा था कि समस्या का हल व्यापक जनजागण से होगा। इसमें बाधा बनने वाली अनुच्छेद 370 हटाना पड़ेगा। और देखिए, 2011 के बाद 11 वर्षों में हम सब लोगों द्वारा मिलकर किये गये प्रयासों के कारण आज अनुच्छेद 370 नहीं रहा है और आज हमारे वापस जाने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। यह हमारा उद्यम है जो हमको जारी रखना पड़ेगा। उसके लिए साहस से चूकना नहीं है। परंतु मुख्य बात है धैर्य, जो हमें बनाए रखना है।

ध्येय भूलें नहीं
परिस्थितियां हर वक्त सामान्य नहीं होतीं। सभी परिस्थितियों में हमारा बल भी सामान्य नहीं होता। इसलिए जिस परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में किस प्रकार से अपने बल का प्रयोग करें, वह बल किस स्थिति में है, यह देखकर उसका प्रयोग करना पड़ता है। यहां श्री भट्ट का नाम लिया गया, श्री गुरु तेगबहादुर जी का नाम लिया गया। भट्ट जी पराक्रमी थे। परंतु उनके समय में उनकी जो स्थिति थी, उसमें लड़ना संभव नहीं था। लेकिन उसके कारण उन्होंने अपना ध्येय छोड़ नहीं दिया। उन्होंने वैदिक ज्ञान में अपनी कुशलता का प्रयोग करके जिस शक्ति को हम परास्त नहीं कर सकते, उस शक्ति को प्रसन्न कर लिया। उसकी प्रसन्नता के आधार पर विस्थापित हुए अपने सभी बंधुओं को सम्मानपूर्वक फिर से बसाने का रास्ता खोल दिया। अपनी कला और कुशलता का उपयोग उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए नहीं किया। उन्होंने उसके बदले में अपने बंधुओं के हित को सबसे ऊपर माना। अपने देश के हित को ऊपर रखा।

हम संघ में पहले एक कथा सुनते थे-इतिहास की घटना है। शाहजहां की लड़की बीमार थी। उपचार नहीं हो रहा था, तो वहां एक ब्रिटिश डॉक्टर से दवाई लेने के बाद वह ठीक हो गई। शाहजहां ने उस डॉक्टर से पूछा, मांगो क्या चाहिए, मैं दूंगा। लेकिन उस डॉक्टर ने अपने लिए कुछ नहीं मांगा। मांगता तो मालामाल हो जाता। डॉक्टरी बंद करके तीन पीढ़ी तक आराम से रह सकता था। परंतु उसने यह सब नहीं मांगा। उसने बादशाह से कहा, जो अंग्रेज व्यापारी इस देश में आते हैं उनके लिए आप जकात को माफ कर दो। टैक्स को माफ कर दो। अंग्रेजों के व्यापार को यहां और अधिक फैलाने के लिए, अपने देश के अर्थतंत्र को बढ़ाने के लिए जो चाहिए था, वही उसने मांगा था। हमको अपने बच्चों को ये कथा सुनाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि हमारे इतिहास में भट्ट जी की कथा है। उन्होंने अपनी कुशलता का उपयोग करके अपने भूमि से उखड़े बंधुओं को फिर से वहां स्थापित करने का काम किया।

सबको संगठित करने वाले ललितादित्य
राजा ललितादित्य के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। जिन महापुरुषों के इतिहास से स्फूर्ति पाकर अपने देश के लिए पराक्रम करके प्राणों तक की बलि चढ़ाने वाले वीर योद्धा तैयार होते हैं, उनमें अग्रपंक्ति में राजा ललितादित्य का नाम है। उनके समय में अपने देश पर अरबों के आक्रमण का खतरा आया था। उनके सामने सिंध परास्त हो गया था और राजा दाहिर की मृत्यु हो गयी थी। राजा दाहिर के पुत्र ने प्राण भय से विधर्म को स्वीकार किया, लेकिन वह अरबी शासकों की प्रताड़ना झेलता रहा था। सिंध विजय के कारण उत्साहित हुए वे अरब पंजाब को, राजा ललितादित्य के साम्राज्य कश्मीर को डरा रहे थे। उनकी सीमाओं पर दस्तक दे रहे थे। यह निश्चित था कि वे आक्रमण करेंगे। गुजरात की तरफ, राजस्थान की तरफ, पंजाब की तरफ, हिमाचल, कश्मीर और आज जिसको अफगानिस्तान कहते हो, उस तरफ अपने पैर पसारने का उनका इरादा बिल्कुल साफ था। उन्होंने वारदातें करनी शुरू कर दी थीं। उस समय के तिब्बत के शासक के मन में भी अपने साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा थी। वे पूरब में चीन के पश्चिम में हिमाचल से लगे अपने सीमावर्ती राज्यों को धमका रहे थे। मगध तक जीतने की उनकी इच्छा थी। ऐसी स्थिति में राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ ने क्या किया? उन्होंने भारत के राजाओं का संघ तैयार किया। कोई औपचारिक सभा करके नहीं, लेकिन दूत भेजकर वार्ता हुई और उन्होंने लोगों में अपने राष्ट्रीय हित को जगाया।

सभी विविधताओं को स्वीकार करने वाले, सभी पूजाओं का सम्मान करने वाले, मनुष्य की स्वतंत्रता से लेकर राष्ट्रों की स्वतंत्रता तक का सम्मान करते हुए। मानवता का हित करने वाले इस देश को, इसकी संस्कृति को, विविधता को इसकी सीमाओं के बाहर रहने वाले कट्टरपंथी स्वीकार नहीं करते। ऐसी ताकतों से खतरा है। इसलिए अपना-अपना अभियान करते समय हम परस्पर पूरक होकर चलें और इन ताकतों को भारत की सीमाओं के परे खदेड़ दें। इस विचार को उनके समकालीन राजाओं के में दिल में बैठाने में ललितादित्य सफल हुए थे।

ललितादित्य का विचार सत्य था जो आज भी सत्य है। आज भी हमारा वही विचार है। हम ऐसे देश हैं जो विविधता का स्वीकार करते हैं। व्यक्ति से लेकर राष्ट्रों तक की स्वतंत्रता मान्य करते हुए संपूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब बनाना चाहते हैं। हम ऐसी उदात्त सनातन प्राचीन हिन्दू संस्कृति को मानने वाले लोग हैं। इसलिए दुनिया की कट्टरपंथी ताकतें हमको बार-बार धमकाती हैं। लेकिन उन पर विजय पाना और दुनिया को उनके चंगुल से मुक्त कराना, यह ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य है। यही विचार ललितादित्य ने उस समय की भाषा में तत्कालीन भारतीय राजाओं को समझाया था।

उनकी संगठन कुशलता, विचारशीलता स्पष्ट दिखती है। सत्य पर जमकर खड़े होने की प्रवृत्ति दिखती है। वे डरे नहीं। उन्होंने संधि नहीं की। ‘मुसलमान बन जाओ, हमारा प्रभुत्व स्वीकार करो तो बचोगे’, ऐसा खुली चुनौती सभी को दी गई थी। ललितादित्य ने ऐसा नहीं किया, अन्य लोगों को भी इस खतरे से बचाया। राजा दाहिर के पुत्रों के मुसलमान बनने के बाद भी उन्हें अरब सत्ता सताने लगी। उनका अपमान करने लगी। ललितादित्य ने सभी राजाओं में स्वाभिमान जगाया, स्व का बोध जगाया। इन सब लोगों को जो दिग्विजयी ज्ञान हुआ उसका प्रमुख बल राजा ललितादित्य और उनकी सेना ही बनी थी। उन्होंने इन सब लोगों के अपने-अपने अभियान पूरक बनाकर उसके आघात से इन शत्रुओं को सीमापार भगाने का काम किया।

राजा ललितादित्य का भारत के इतिहास में यह बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। संपूर्ण एशिया के इतिहास में इसने एक प्रभाव पैदा किया है। हमारे पराक्रम का यह इतिहास हमारे लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। इसके कारण पूरा सिंध स्वतंत्र हुआ और कट्टरपंथियों के आक्रमण से मुक्त हुआ। उनको काबूल-जाबूल के पार खदेड़ दिया गया। उसके बाद अरब लोगों को आक्रमण करने का जल्दी साहस नहीं हुआ।

उन्होंने चीन की सहायता लेकर तिब्बत के सम्राज्यवादी मंसूबों की काट की। इस दिग्विजय से इधर चीन से लेकर पश्चिम में ग्रीस तक के हमारे व्यापार के पांचों मार्गों को उन्होंने मुक्त करा लिया था। लेकिन कहीं आगे चलकर आक्रमकों में फिर से ऐसी आकांक्षा न जाग्रत हो, इसलिए उसे सुनिश्चित करते हुए वे फिर से पामिर के पहाड़ तक गए।

ललितादित्य का राज्य और उनका प्रशासन सुशासन का एक आदर्श था। प्रचंड साम्राज्य था उनका। उस समय जिसको मध्य क्षेत्र कहते थे, भारत में कन्नौज के राजा यशोवर्मन, उनका साम्राज्य और पूरा उत्तर क्षेत्र ललितादित्य के आधिपत्य में था। ललितादित्य लगभग सारी उम्र लड़ते रहे। उन्होंने अपने राज्य के बाहर जाकर दूर देशों में लड़ाइयां लड़ीं। लेकिन ऐसा होने पर भी उनके अपने राज्य में किसी प्रकार की अव्यवस्था नहीं थी

शिवाजी महाराज, राणा प्रताप के राज सुशासन और पराक्रम के आधार पर विजय और राष्ट्रीय दृष्टि के आदर्श हैं। वे अखिल भारतीय दृष्टि के आदर्श हैं। ललितादित्य उस परंपरा में इन दोनों के पूर्वज थे। उनके चरित्र से हमें प्रेरणा मिलती है कि किसी विषय पर सोचना कैसे है, उसे करना कैसे है। उनसे हमें एक आदर्श मिलता है। ऐसे थे हमारे पूर्वज। हमें इसका स्मरण रखना चाहिए। हमें उन गुणों को अपने में लाने का प्रयास करना चाहिए


शिवाजी महाराज, राणा प्रताप के भी राज ऐसे ही सुशासन और पराक्रम के आधार पर विजय और राष्ट्रीय दृष्टि के आदर्श हैं। वे अखिल भारतीय दृष्टि के आदर्श हैं। ललितादित्य उस परंपरा में इन दोनों के पूर्वज थे। उनके चरित्र से हमें प्रेरणा मिलती है कि किसी विषय पर सोचना कैसे है, उसे करना कैसे है। उनसे हमें एक आदर्श मिलता है। ऐसे थे हमारे पूर्वज। हमें इसका स्मरण रखना चाहिए। हमें उन गुणों को अपने में लाने का प्रयास करना चाहिए।

हमने गुरु तेगबहादुर जी महाराज का नाम लिया। वे परहित के लिए, देशहित के लिए, हिन्दू हित के लिए परम त्याग का आदर्श हैं। वे हिन्द की चादर थे। परंतु उसके पीछे एक विचार भी था। यह विचार था, सबके प्रति अपनेपन का, कट्टरपन का नहीं। यही धर्म है। उस धर्म के लिए उन्होंने औरंगजेब का आह्वान स्वीकार किया। कश्मीरी पंडितों की विनती को स्वीकार किया और उनको बचाने के लिए स्वयं दिल्ली गए। उन्होंने वहां अमानवीय तत्वों का सामना करते हुए सिर दे दिया, लेकिन सार नहीं दिया। अपने स्वयं के प्राणों की बलि चढ़ाकर उन्होंने भारत के प्राणों की रक्षा की। यह त्याग, यह धैर्य, यह साहस और पराक्रम, इसके साथ हमारी बुद्धि-शक्ति का संयोग हो और हम सतत् प्रयास में लगे रहें। इस प्रयास की आवश्यकता है।

पूरी तैयारी से हो वापसी का प्रण
आज एक जनजागरण हुआ है। भारत के लगभग सब सामान्यजन कश्मीर के विस्थापित बंधुओं के दुख-दर्द को जानते हैं। उनके साथ सहानुभूति रखते हैं। इसके लिए यह जनजागरण हुआ है। नीतियां चलेंगी, लेकिन एक बात और हमको ध्यान में रखनी है। हम अगले साल जाएंगे या उसके अगले साल जाएंगे। लेकिन हमको यह संकल्प भी रखना होगा अब जाएंगे तो ऐसे जाएंगे कि वहां पर जाकर बसने के बाद फिर से कश्मीर में ऐसी विभीषिका हमारे नसीब में नहीं आएगी। हम आठवीं बार बाहर आए हैं। हमको उसी कट्टरपन के कारण बाहर आना पड़ा है। अब जाएंगे तो हिन्दू बनकर, भारत भक्त बनकर, अपनी सुरक्षा के प्रति पूर्ण और स्वयं सन्नद्ध होकर जाएंगे। हम वहां अपनी आजीविका सुख से चला सकें। सबके साथ घुलें- मिलें। अपने विकास में सबका विकास साध सकें, ऐसे बसेंगे और ऐसे रहेंगे कि फिर से हमको कोई वहां से विस्थापित नहीं कर सकेगा। फिर से अगर कोई मन में दुराशा लेकर आए तो उसका अत्यंत कटु फल उसको चखना पड़ेगा। उसके पाप को उसे भुगतना पड़ेगा। इस प्रकार वहां की व्यवस्था हो। जिनके साथ हम पहले रहते थे, ऐसे लोग वहां पर अभी भी हैं। जिनके मन में हमारी प्रति द्वेष रहता था, वह शायद कम हो गया हो, पता नहीं। लेकिन उस द्वेष का पूर्ण निष्कासन होना चाहिए। उनको लगना चाहिए कि हमारे रहते हुए भी इन भाइयों को इतने वर्ष अपने ही देश में विस्थापित होकर कष्ट झेलने पड़े। उन्हें महसूस होना चाहिए कि हां, वह बहुत गलत हुआ। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। आइए, हम मिलकर रहेंगे, इसका परिमार्जन करेंगे। ऐसी मन:स्थिति बनानी पड़ेगी

इसके लिए समय लगता है। प्रयास करने पड़ते हैं। लेकिन समय आने पर फल भी मिलता है। 2011 में भी हमने यह संकल्प किया था। 2011 में भी जनजागरण हुआ था। कश्मीर किसी को देने की बात किसी भी तरह मानी नहीं जा सकती। लेकिन तब हमारे प्रयासों के फल खाने का समय नहीं आया था। वह समय अब आया है। धैर्यपूर्वक अपना उद्यम जारी रखना है। हम अपनी शर्तों पर वहां जाकर बसें, इसके लिए जो जो प्रयास करने हैं, वे करने ही हैं। इस प्रयास में सारा देश आपके साथ है। आपको केवल वहां बसना नहीं है, फिर से ऐसे उजड़ने की नौबत न आए इसलिए संपूर्ण भारत का अभिन्न अंग बनकर संपूर्ण भारत की मजबूत और जाग्रत सुरक्षा की छाया में हमको रहना है।

अब कश्मीर से लोग उजड़ेंगे और भारत के लोगों को पता ही नहीं होगा, ऐसा फिर से नहीं होगा। इतनी जाग्रति भी लानी पड़ेगी। ये सारे काम चल रहे हैं। आगे बढ़ रहे हैं। संकल्प पूर्ति का समय निकट है। अंतिम क्षण पर हड़बड़ी करने से काम नहीं बनता। कश्यप ऋषि की दो पत्नियां थीं-एक विनता, दूसरी कद्रू। कश्यप ऋषि ने संतान के लिए तपस्या की तो भगवान ने प्रसन्न होकर उनसे पूछा, कहो, कैसे पुत्र चाहिए? उन्होंने दोनों पत्नियों को बुलाया और पूछा कि भगवान पूछ रहे हैं, बताओ कैसे पुत्र चाहिए? माता के नाते आपकी क्या आकांक्षा है? कद्रू ने कहा, मुझे ढेर सारे पुत्र चाहिए। मैं अधिक से अधिक पुत्रों की माता बनूं। विनता ने कहा कि मुझे तो एक पुत्र भी चलेगा, लेकिन वह गुणवान होना चाहिए। पहली की ज्यादा संख्या की आकांक्षा थी तो उन्हें हजार पुत्र यानी ऐसा कहते हैं कि भगवान ने उन्हें हजार अंडे दिये और बोले कि इनको तोड़ो, इसमें से तुम्हारे पुत्र निकलेंगे। उसके हजार पुत्र निकले, लेकिन वे गुणवान नहीं थे, गुणहीन थे

हमारी क्षमता है कि दुनिया में कहीं भी बस सकते हैं। लेकिन हमारा संकल्प है कि हम अपनी भूमि में ही बसेंगे। इसलिए बुद्धि, शक्ति, पराक्रम की जो हमारी क्षमता है उसका लोहा तो सारी दुनिया ने माना है। परंतु उद्यम आवश्यक है। हम सब लोगों के द्वारा मिलकर किये गये प्रयासों के कारण आज अनुच्छेद 370 नहीं रहा है। आज हमारे घाटी में वापस जाने का मार्ग प्रशस्त हो रहा है

रेंगकर चलते थे। मिट्टी की ओर मुंह रहता था उनका। कोई उच्च आकांक्षा जीवन में नहीं थी। जिस धरती में पैदा हुए, उन्हें उसी में लिपटकर रहने का शौक था। ऊपर उठने की कोई आकांक्षा नहीं थी। वे सर्प कहलाए। और विनता के लिए दो अंडे दिये। वह उनको छह साल तक देखती रही उससे कोई बाहर नहीं आया। तो विनता का धैर्य चुक गया। उसने एक अंडे को तोड़ दिया। उसमें से तेजस्वी पुत्र निकला। अग्नि समान तेजस्वी वर्ण वाला। परंतु समय से पहले जन्मने के कारण उसके दोनों पैर नहीं थे। उसका नाम था अरुण। इसके बावजूद तेजस्वी होने की वजह से वह सूर्य के रथ का सारथी तो बना, लेकिन पंगु रहा। कारण, विनता का धैर्य टूटना। उस अरुण ने कहा, देखो मां, तुम्हारे कारण मैं बिना पैर के जन्मा और इसके फलस्वरूप तुमको दासत्व भुगतना पड़ेगा। लेकिन अब मेरे बाद जो दूसरा आएगा उसके लिए जल्दी मत करना। उसको अपने आप समय से आने दो। वह पूरा निखरकर आएगा और वही दासत्व से मुक्ति दिलाएगा। वह दूसरा अंडा बारह साल बाद फूटा। उसमें से गरुड़ बाहर आया। वही गरुड़ अमृत लाया और अपनी माता को दासत्व से मुक्त कराया।

कश्यप ऋषि की यह कहानी हमें बताती है कि हड़बड़ी नहीं करनी है। हमें वहां वापस पहुंचना है, लेकिन वैसे जैसे हम चाहते हैं। हमें वैसे ही बसना है जैसे हम चाहते हैं। हमें फिर से विस्थापित नहीं होना है। एक दूसरे के प्रति हमारे मन में आशंका न हो, उसका समूल विनाश हो जाए। तब हमको जाना है। इसको ध्यान में रखकर हम इस उद्यम में साथ-साथ प्रयास करें। संकल्प पूर्ति का समय निकट है। यह कोई भविष्यवाणी नहीं है। 

मुझे सारे आकलन के बाद ऐसा लगता है। इसलिए वह दिन शीघ्रातिशीघ्र हमारे देखने में आए, ऐसी शुभकामना करता हूं