Friday, January 15, 2021

कन्याकुमारी और स्वामी विवेकानंद जी का नवोन्मेष !

स्वामी जी के लेखों और भाषणों ने अनेक सुशिक्षित हिंदुओं पर गहरी छाप छोड़ी थी। उस दौर में पुलिस जब भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाती थी तो वहां उसे वहां स्वामी विवेकानंद जी की पुस्तकें अवश्य मिलती थीं



मां जगदम्बा की तपोस्थली कन्याकुमारी निःसंदेह अद्भुत है। हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के सागरों की सम्मिलित उत्ताल तरंगें इस पुण्य भूमि की उस पावन श्रीपाद शिला को नित्य पखारती हैं जहां देवाधिदेव महादेव को पति रूप में पाने के लिए मां आदिशक्ति ने कन्या रूप में घोर तपस्या की थी। मुख्य मंदिर से दूर समुद्र के मध्य स्थित इस श्रीपाद शिला पर अंकित मां के चरण चिह्न शताब्दियों से उनकी दुर्धर्ष तपश्चर्या के साक्षी बने हुए हैं। इसी पावन धरती पर स्वामी विवेकानंद ने सर्वप्रथम भारत के नव निर्माण का स्वप्न देखा था।

लोकप्रिय उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली की स्वामी विवेकानंद के जीवन पर लिखे अप्रतिम उपन्यास ‘न भूतो न भविष्यति’ में स्वामी विवेकानंद को कन्याकुमारी में हुई अद्भुत अनुभूतियों का अत्यंत मनोमुग्धकारी वर्णन मिलता है- ‘’ अदृश्य का आकर्षण, संस्कारों की सांकल अथवा नियति का विधान उन्हें उस ओर इंगित कर रहे थे। संभव है कि पहले कभी यहां मंदिर रहा हो परंतु अभी तो सागर की लहरों ने श्रीपाद शिला को मुख्य भूमि से अलग कर दिया था। युवा संन्यासी ने मंदिर में मां के विग्रह को प्रणाम किया और फिर मंदिर से बाहर निकलकर उस शिला की ओर देखने लगे। वहां तक पहुंचने के लिए उनके पास कोई साधन न था। पास में सागर तट पर कुछ लोग अपने नौकाओं के साथ थे अवश्य परंतु उन्हें देने के लिए उनके पास पैसा न था और बिना पैसे के उन्हें भला कोई क्यों ले जाता। वे अपने प्राणों में मां की पुकार को आकुलता से अनुभव कर रहे थे और यह त्वरा तीव्र से तीव्रतम होती जा रही थी। सहसा मन में यह विचार कौंधा कि जिसकी सृष्टि है, जिसका सागर है, जिसके सभी समुद्री जलचर और महामत्स्य हैं; जब वही मां मुझे बुला रही हैं तब फिर प्रतीक्षा किसकी और अवरोध कैसे! यदि ये नाविक बिना पैसे के उन्हें उनके गंतव्य तक ले जाने को तैयार नहीं हो रहे हैं तो न सही; भला मां से बड़ा कोई नाविक है क्या! और इस निश्चय के साथ वे पास की एक चट्टान पर चढ़े और उस अथाह जलराशि में कूद पड़े। ‘छपाक’ की ध्वनि से लोगों का ध्यान उधर गया। तट पर खड़े लोगों ने देखा कि एक युवक संन्यासी सागर में तैरता हुआ श्रीपाद शिला की दिशा में बढ़ रहा था। सागर बेहदअशांत था। लहरों के तेज थपेड़े संन्यासी को उसके दुस्साहस के लिए चेतावनी दे थे। बाहर सागर में घोर अशांति थी लेकिन उनके अंदर असीम शांति। उनके मन में जगन्माता से मिलने की विचित्र सी उत्कंठा थी। जैसे वे प्रकृति से कोई रोचक खेल खेल रहे हों। वह मां से जल्द मिलना चाहते थे पर प्रकृति मार्ग में तमाम बाधाएं बिछाए बैठी थी। यूं समुद्र तो उन्होंने अनेक बार देखे थे तथा लहरों से क्रीड़ा तो वे सदा करते आए थे पर लहरों ने इस तरह अजगर बनकर उनको इस प्रकार पहले कभी न बांधा था.... आज का सा समुद्र का महागर्जन, लहरों के इतने विशालकाय पर्वत उन्होंने पहले कभी न देखे थे.... पर महासागर की इन तूफानी लहरों के बीच अठखेलियां करते भयावह महामत्स्यों और मानवभक्षी शार्कों के बीच भी वे पूरी तरह शांत व निर्भीक थे। यूं भी विषम परिस्थितियों में घबराना व विवश होना उन्होंने कभी सीखा ही न था। वे भलीभांति जानते थे कि उनकी मां उनके निकट ही हैं और उनके साथ लीला कर रही हैं। उन्हें प्रगाढ़ अनुभूति हो रही थी कि यदि उन्होंने जगन्माता को खोज लिया तो ठीक अन्यथा वेस्वयं ही उन्हें अपनी गोद में उठा लेंगी। जगन्माता की अदृश्य कृपा का यह अभेद्य कवच उन्हें उनके गंतव्य की ओर तेजी से अग्रसर कर रहा था। अचानक उन्हें पानी के कम होने का एहसास हुआ और उन्होंने अनुभव किया कि वे श्रीपाद शीला के निकट पहुंच गये हैं। तभी सहसा उन्हें पावों के नीचे उन्हें पाषाण का ठोस आधार अनुभव किया। उन्होंने दृष्टि उठाई तो सामने अलौकिक दृश्य उपस्थित था- सागर और आकाश मिलकर एक हो रहे थे। मानो सारी प्रकृति जैसे एक रूप हो गयी हो। नजरों के सामने श्रीपाद शिला को देख उनकी आंखों में आंसू छलक उठे। उन्होंने मस्तक रखकर प्रणाम किया और स्वतः ही कह उठे- हे मां ! तुम्हारी तपस्या से पाषाण तक पिघल गए थे तभी तो तुम्हारे चरण चिह्न यहां अंकित हो सके। प्रार्थना की उस स्थिति में उन्हें भुवन मोहिनी जगत व्यापिनी मां जगदम्बा की प्रत्यक्ष उपस्थिति का भान होने लगा और वे ध्यानस्थ हो गए।

ध्यान की गहराइयों में उतरते हुए उनका ध्यान भारत के वर्तमान और भविष्य पर केंद्रीभूत हो गया। उस दिव्य दर्शन में महापंडित भारत की उपलब्धियां नक्षत्रों के समान उनके हृदय आकाश में प्रकाशपूर्ण हो उठीं। उन्होंने न सिर्फ भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम स्वरूप के सत्य को अपने मनःपटल पर साकार होते देखा। उन्होंने देखा कि भारतमाता की धमनियों में दौड़ने वाला रक्त प्रवाह प्रवाह और कुछ नहीं बस ‘अध्यात्म’ था। इसी अध्यात्म पथ से विमुख होने के कारण ही देश का पतन हुआ। आद्यशक्ति जगदम्बा उन्हें अनुभव करा रही थीं कि उसी सर्वोच्च स्थिति की पुनर्प्राप्ति के लिए भारत की आध्यात्मिक चेतना की नव प्रतिष्ठा अनिवार्य है और यह संभव होगा उपनिषदों के चिंतन को पुनः अमली जामा पहनाने से। इसके लिए जात-पात, ऊंच-नीच, भाषा क्षेत्र के भेद को भुलाकर राष्ट्र की अखंडता की साधना करनी होगी तथा भक्ति, श्रद्धा, ज्ञान, विवेक से जन-जन को पोषित करना होगा।

तीन दिन की इस अविराम ध्यान साधना के साथ वह युवा संन्यासी एक राष्ट्र निर्माता, विश्व शिल्पी स्वामी विवेकानंद के रूप में परिणत हो गया। यह उनका नूतन जन्म था। उनकी आत्मा करुणा से पिघल कर सर्वव्यापी हो गयी थी। आज उनके सामने उनका कर्तव्य पथ प्रशस्त हो गया था तथा उनके वर्षों के आत्मचिंतन को एक नव निष्कर्ष मिल गया था। अब उन्हें भारत के भविष्य को साकार मात्र करना था, उनके लिए यही जगन्माता का संकेत और आदेश था।

राष्ट्रमंत्र के अद्भुत उद्घोषक

भारतभूमि के प्रति जो अगाध प्रेम स्वामी विवेकानंद जी ने देशवासियों में संचालित किया था, वही स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य प्रेरणा बना। नवजीवन प्रकाशन कोलकाता से प्रकाशित भूपेंद्र नाथ दत्ता की पुस्तक ‘पैट्रियोट प्रॉफिट स्वामी विवेकानंद’ में उल्लेख है कि अपनी फ्रांसीसी शिष्या जोसेफाईन मैक्लियाड से स्वामी जी ने कहा था कि क्या निवेदिता नहीं जानती है कि मैंने स्वतंत्रता के लिए प्रयास किया किंतु देश अभी तैयार नहीं है, इसलिए छोड़ दिया। भारत भ्रमण के दौरान देशभर के राजाओं को जोड़ने का प्रयत्न भी इस उद्देश्य से स्वामी जी ने किया था। स्वामी विवेकानंद की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से कोई भागीदारी भले ही नहीं थी परन्तु फिर भी आजादी के आंदोलन के सभी चरणों पर उनका व्यापक प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के पुरोधा थे स्वामी विवेकानंद। उन्होंने अपनी प्रचंड तपश्चर्या से सूक्ष्म जगत को इतना मथ डाला था कि भारत की प्रसुप्त आत्मा जाग उठी थी। इसी का परिणाम था कि जन-जन में स्वतंत्रता की ज्वाला धधक उठी थी। युवाओं में स्वतंत्रता के लिए आत्माहुति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। सूक्ष्म स्थूल का आधार होता है। जो सूक्ष्म में घटित होता है वही कालांतर में स्थूल में परिवर्तित हो जाता है। इसी आधार पर स्वामी विवेकानंद ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए सूक्ष्म जगत को उद्वेलित किया था।

भगिनी निवेदिता के अनुसार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर स्वामी विवेकानंद का प्रभाव फ्रांसीसी क्रांति पर रूसो के प्रभाव अथवा रूसी व चीनी क्रांति पर कार्ल मार्क्स के प्रभाव से किसी भी तरह से कम नहीं था। कोई भी स्वतंत्रता आंदोलन राष्ट्रव्यापी चेतना के पृष्ठभूमि तैयार किए बिना आकार नहीं ले सकता। सभी समकालीन स्रोतों से स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीयता की भावना की जागरण में विवेकानंद का प्रभाव सबसे सशक्त था। वे नींव के निर्माण में लगने वाले पुरोधा ही नहीं, राष्ट्रीय जीवन के अनन्य प्रतीक भी थे।

अपनी मित्र व स्वामी विवेकानंद की अनुयायी श्रीमती एरिक हेमंड को भेजे पत्र में भगनी निवेदिता ने इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा था कि अंग्रेज उनके प्रति आशंकित हैं। अल्मोड़ा में पुलिस अपने जासूसों के द्वारा स्वामी जी पर दृष्टि रही है। यद्यपि स्वामी जी इस बात को गंभीरता से नहीं लेते हैं पर यदि ब्रिटिश सरकार स्वामी जी के खिलाफ कोई अनुचित कदम उठाएगी तो उसका विरोध करने वाली राष्ट्रवादी ताकतों में वे भी पूर्ण निष्ठा से शिरकत करेंगी।

गौरतलब हो कि स्वामी जी के लेखों और भाषणों ने अनेक सुशिक्षित हिंदुओं पर गहरी छाप छोड़ी थी। उस दौर में पुलिस जब भी किसी क्रांतिकारी के घर की तलाशी लेने जाती थी तो वहां उसे वहां स्वामी विवेकानंद जी की पुस्तकें अवश्य मिलती थीं। प्रसिद्ध देशभक्त क्रांतिकारी ब्रह्मबांधव उपाध्याय और अश्विनी कुमार दत्त का कहना था कि स्वामी जी ने उन्हें बंगाली युवाओं की अस्थिओं से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार बनाने को कहा था जो भारत को स्वतंत्र करा सके। इसी तरह चर्चित बंगाली लेखक कालीचरण घोष अपनी प्रेरणादायी रचना ‘’दि रोल ऑफ ऑनर एनेक्टोड ऑफ इंडियन मार्टियर्स’’ में बंगाल के युवा क्रांतिकारियों के मन पर स्वामी जी के प्रभाव के बारे में विस्तार से लिखते हैं कि स्वामी जी की वाणी ने न सिर्फ बंगाली युवाओं के मन में राष्ट्रभक्ति की भावना भरी वरन उनमें राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होने की प्रवृत्ति भी विकसित की। स्वामी विवेकानंद के बौद्धिक जगत पर पड़ा प्रभाव उनके देहावसान के बाद बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में श्री अरविंद के उद्भव के रूप में सामने आया।