Thursday, April 22, 2021

काशी विश्वनाथ: यहां कंकर-कंकर में बसते हैं विश्वेश्वर

पौराणिक मान्यता है कि वाराणसी में पवित्र गंगा नदी में स्नान के बाद अगर बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर लिए जाएं तो जीवन सफल हो जाता है और प्राणी आवागमन के बंधन से छूट कर शिवलोक पहुंच जाता है


काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर  हजारों वर्ष से वाराणसी में स्थित है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, संत एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास जैसी विभूतियां पधारी थीं।  यहीं पर संत एकनाथजी ने वारकरी सम्प्रदाय का महान ग्रंथ ‘श्रीएकनाथी भागवत’ लिखकर पूरा किया और काशी नरेश तथा अन्य विद्वतजनों द्वारा उस ग्रंथ को हाथी पर रखकर खूब धूमधाम से शोभायात्रा निकाली गई। महाशिवरात्रि के मध्य रात्रि पहर में अन्य प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभायात्रा ढोल, नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है।

पौराणिक मान्यता है कि प्रलयकाल में भी इस मंदिर का लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, यही भूमि आदि सृष्टि स्थली भी बतायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होंने सारे संसार की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और उन्हीं की अर्चना से श्री वशिष्ठ जी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। यही कारण है कि प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु यहां पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के लिए आते हैं।

धार्मिक महत्व के अलावा यह मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से भी अनुपम है। इसका भव्य प्रवेश द्वार देखने वालों की दृष्टि में मानो बस जाता है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार इंदौर की महारानी अहिल्या  बाई होल्कर के स्वप्न में भगवान शिव आए। वे भगवान शिव की भक्त थीं और इसलिए उन्होंने 1780 में यह मंदिर बनवाया।

विश्वनाथ खण्ड को पुराना शहर भी कहा जाता है, जो दशाश्वमेध घाट और गोदौलिया के बीच मणिकर्णिका घाट के दक्षिण और पश्चिम तक नदी की उत्तर दिशा में वाराणसी के मध्य में स्थित है। यह पूरा क्षेत्र घूमने योग्य है। बाबा विश्वनाथ मंदिर के शिखर पर स्वर्ण लेपन होने के कारण इसे स्वर्ण मंदिर भी कहते हैं। यहां स्थापित शिवलिंग चिकने काले पत्थर से बना हुआ है और इसे ठोस चांदी के आधार पर रखा गया है। यहां भक्तजन आकर संकल्प करते हैं और पंच तीर्थयात्रा शुरू करने से पहले अपने मन की भावना यहां व्यक्त करते हैं। वाराणसी को एक ऐसा स्थान कहा जाता है जहां प्रथम ज्योतिर्लिंग है।

सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। मान्यता है कि भगवान भोलेनाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश फूंकते हैं, जिससे वह जीवन और मृत्यु के आवागमन से छूट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मत्स्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवं दुखों से पीड़ित जन के लिए काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के इस आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं- दशाश्वमेध, लोलार्ककुण्ड, बिन्दुमाधव,    केशव और मणिकर्णिका। और इन्हीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर की महिमा आप इस बात से ही समझ लीजिए कि द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से सबसे प्रमुख इसी स्थान को प्रथम लिंग माना गया है। ऐसा माना जाता है कि साक्षात् भगवान शंकर माता पार्वती के साथ इस स्थान पर विराजमान हैं।

काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास अनादि काल से माना जाता है। यहां तक कि कई उपनिषदों और महाकाव्य ‘महाभारत’ में इसका वर्णन मिलता है।

हालांकि अनेक आक्रमणों के बावजूद, तमाम कुत्सित प्रयासों के बाद भी काशी विश्वनाथ की महिमा उसी तरह से बरकरार रही, जिस प्रकार से ईसा पूर्व राजा हरिश्चंद्र, सम्राट विक्रमादित्य जैसे महान शासकों ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए थे। एक तरफ जहां मंदिर तोड़ने वाले थे, वहीं दूसरी तरफ राजा टोडरमल जैसे महान व्यक्तियों ने इसके पुनरुद्धार का कार्य किया। मराठों ने इसकी मुक्ति के लिए जान की बाजी लगा दी थी। अहिल्याबाई होल्कर और महाराणा रणजीत सिंह जैसे शासकों ने इस मंदिर की महिमा को हमेशा बरकरार रखा और उसमें वृद्धि ही की। विश्वनाथ मंदिर के बारे में एक बात और प्रचलित है कि जब यहां कि मूर्तियों का शृंगार होता है, तो सभी मूर्तियों का मुख पश्चिम दिशा की तरफ रहता है।

मानव को सिखाई मर्यादा : मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम

भगवान श्रीराम का पूरा जीवन प्रेरणादायी है। एक आदर्श राजा, आदर्श पति, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई के रूप में उनका उदाहरण दिया जाता है। उनकी सत्यता, न्यायप्रियता, क्षमाशीलता और सदाचारिता की तो कोई सीमा नहीं है





इन दिनों अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का कार्य चल रहा है। इससे समस्त भारतीय प्रसन्न हैं। श्रीराम इस देश की बहुसंख्यक आबादी के आराध्यदेव हैं। वे न सिर्फ हिंदुओं अथवा भारतवासियों के लिए परम पूजनीय हैं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों के लोग भी उन्हें भगवान और मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में मान्यता प्रदान करते हुए पूजते रहे हैं। वे भारत की पहचान और राष्ट्रीयता के प्रतीक हैं। दरअसल, श्रीराम के आदर्श, उनका अनुकरणीय और आज्ञापालक चरित्र तथा रामायण काल के अन्य सभी पात्रों की अपार निष्ठा, भक्ति, प्रेम, त्याग एवं समर्पण अपने आप में अनुपम है

भगवान श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष चैत्र मास की शुक्ल पक्ष नवमी को रामनवमी का त्योहार समूचे भारत में अपार श्रद्धा, भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में उत्सवों का विशेष आयोजन होता है, जिनमें भाग लेने के लिए देशभर से हजारों भक्तगण अयोध्या पहुंचते हैं तथा वहां स्थित सरयू नदी में पवित्र स्नान कर पंचकोसी की परिक्रमा करते हैं। समूची अयोध्या नगरी इस दिन पूरी तरह राममय नजर आती है और हर तरफ भजन-कीर्तन तथा रामायण के अखंड पाठ की गूंज सुनाई पड़ती है। देशभर में अन्य स्थानों पर भी जगह-जगह इस दिन श्रद्धापूर्वक व्रत, उपवास, यज्ञ, दान-पुण्य आदि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन होता है। हालांकि इस वर्ष फिर से बढ़ते कोरोना संक्रमण के चलते ऐसे आयोजनों के ज्यादा धूमधाम से मनाए जाने की संभावना कम ही रहेगी, लेकिन भीड़-भाड़ से बचकर लोग अपने घर में भी अपने आराध्यदेव के जन्मोत्सव को श्रद्धापूर्वक मना सकते हैं।

श्रीराम का जन्म नवरात्र के अवसर पर नवदुर्गा के पाठ के समापन के पश्चात् हुआ था और उनके शरीर में मां दुर्गा की नौवीं शक्ति जाग्रत थी। मान्यता है कि त्रेता युग में इसी दिन अयोध्या के महाराज दशरथ की पटरानी महारानी कौशल्या ने श्रीराम को जन्म दिया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, ‘‘भगवान श्रीराम चंद्रमा के समान अति सुंदर, समुद्र के समान गंभीर और पृथ्वी के समान अत्यंत धैर्यवान थे तथा इतने शील संपन्न थे कि दुखों के आवेश में जीने के बावजूद कभी किसी को कटु वचन नहीं बोलते थे। वे अपने माता-पिता, गुरुजन, भाइयों, सेवकों, प्रजाजन अर्थात् हर किसी के प्रति अपने स्नेहपूर्ण दायित्वों का निर्वाह किया करते थे। माता-पिता के प्रति कर्तव्य पालन एवं आज्ञा पालन की भावना तो उनमें कूट-कूटकर भरी थी। उनकी कठोर से कठोर आज्ञा के पालन के लिए वे हर समय तत्पर रहते थे।’’

 श्रीराम का चरित्र बेहद उदार प्रवृत्ति का था। उन्होंने उस अहिल्या का भी उद्धार किया, जिसे उसके पति ने एक बार पतित घोषित कर पत्थर की मूर्ति बना दिया था। जिस अहिल्या को निर्दोष मानकर किसी ने नहीं अपनाया, उसे श्रीराम ने अपनी छत्रछाया प्रदान की। लोगों को गंगा नदी पार कराने वाले एक मामूली से नाविक केवट की अपने प्रति अपार श्रद्धा व भक्ति से प्रभावित होकर भगवान श्रीराम ने उसे अपने छोटे भाई का दर्जा दिया और मोक्ष प्रदान किया। अपनी परम भक्त शबरी नामक भीलनी के झूठे बेर खाकर उसका कल्याण किया।

महारानी केकैयी ने महाराजा दशरथ से जब राम को 14 वर्ष का वनवास दिए जाने और अपने लाड़ले पुत्र भरत को राम की जगह राजगद्दी सौंपने का वचन मांगा तो दशरथ गंभीर धर्मसंकट में फंस गए थे। वे बिना किसी कारण राम को 14 वर्ष के लिए वनों में भटकने के लिए भला कैसे कह सकते थे और श्रीराम में तो वैसे भी उनके प्राण बसते थे। दूसरी ओर वचन का पालन करना रघुकुल की मर्यादा थी। ऐसे में जब श्रीराम को माता केकैयी के यह वचन मांगने और अपने पिता महाराज दशरथ के इस धर्मसंकट में फंसे होने का पता चला तो उन्होंने खुशी-खुशी उनकी यह कठोर आज्ञा भी सहज भाव से शिरोधार्य की और उसी समय 14 वर्ष का वनवास भोगने तथा छोटे भाई भरत को राजगद्दी सौंपने की तैयारी कर ली। श्रीराम के लाख मना किए जाने पर भी उनकी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण भी उनके साथ वन को निकल पड़े।

वनवास की शुरुआत श्रृंगवेरपुर नामक स्थान से प्रारंभ कर वहां से वे भरद्वाज मुनि के आश्रम में चित्रकूट पहुंचे। उसके बाद विभिन्न स्थानों की यात्रा के दौरान पंचवटी में उन्होंने अपनी कुटिया बनाने का निश्चय किया। यहीं पर रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काटे जाने की घटना हुई। उसी घटना के कारण वहां खर-दूषण सहित 14,000 राक्षस राम-लक्ष्मण के हाथों मारे गए। यहीं से श्रीराम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति में लंका का राजा रावण माता सीता का अपहरण कर उन्हें अपने साथ लंका ले गया।

कहा जाता है कि जब सीता का विरह श्रीराम से नहीं सहा गया तो उन्होंने साधारण मनुष्य की भांति विलाप किया, लेकिन हिम्मत न हारते हुए सीता जी की खोज में राम-लक्ष्मण जंगलों में भटकने लगे। इसी दौरान उनकी भेंट अपने अनन्य भक्त हनुमान से हुई, जिन्होंने राम-लक्ष्मण को वानरराज बाली के छोटे भाई सुग्रीव से मिलवाया, जो उस समय बाली के भय से यहां-वहां छिपता फिर रहा था। श्रीराम ने बाली का वध करके सुग्रीव तथा बाली के पुत्र अंगद को किष्किंधा का राज्य सौंपा और उसके बाद सुग्रीव की वानर सेना की सहायता से लंका पर आक्रमण किया और रावण का वध कर सीता को उसके बंधन से मुक्त कराया और लंका पर खुद अपना अधिकार न जमाकर वहां शासन रावण के छोटे भाई विभीषण को सौंप दिया तथा वनवास की अवधि समाप्त होने पर भैया लक्ष्मण, सीता जी व हनुमान सहित अयोध्या लौट आए।

वास्तव में विधि के विधान के अनुसार राम को दुष्ट राक्षसों का विनाश करने के लिए ही वनवास मिला था। उन्होंने अपने मानव अवतार में न तो भगवान श्रीकृष्ण की भांति रासलीलाएं कीं और न ही कदम-कदम पर चमत्कारों का प्रदर्शन किया, बल्कि सृष्टि के समक्ष अपने क्रियाकलापों के जरिए ऐसा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसकी वजह से उन्हें ‘मर्यादापुरुषोत्तम’  कहा गया।

जहां तक राम-रावण के बीच हुए भीषण युद्ध की बात है तो वह सिर्फ दो राजाओं के बीच का सामान्य युद्ध नहीं था, बल्कि दो विचारधाराओं का संघर्ष था, जिसमें एक मानव संस्कृति थी तो दूसरी राक्षसी। एक ओर क्षमादान की भावना को महत्व देने वाले व जनता के दुख-दर्द को समझने एवं बांटने वाले वीतरागी भाव थे, तो दूसरी ओर दूसरों का सब कुछ हड़प लेने की राक्षसी प्रवृत्ति। रावण अन्याय, अत्याचार और अनाचार का प्रतीक था, तो श्रीराम सत्य, न्याय एवं सदाचार के। यही नहीं, सीता जी के अपहरण के बाद भी श्रीराम ने अपनी मर्यादा को कभी तिलांजलि नहीं दी। उन्होंने इसके बाद भी रावण को एक महाज्ञानी के रूप में सदैव सम्मान दिया और यह इससे साबित भी हुआ कि रावण की मृत्यु से कुछ ही क्षण पूर्व श्रीराम ने लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञानार्जन के लिए भेजा था।

श्रीराम में सभी के प्रति प्रेम की अगाध भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके प्रजा वात्सल्य, न्यायप्रियता और सत्यता के कारण ही उनके शासन को आज भी ‘आदर्श’ शासन की संज्ञा दी जाती है और आज भी अच्छे शासन को ‘रामराज्य’ कहकर परिभाषित किया जाता है। ‘रामराज्य’ यानी सुख, शांति एवं न्याय का राज्य। रामनवमी पर्व वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की गुरु सेवा, माता-पिता की सेवा व आज्ञापालन, जात-पात के भेदभाव को मिटाने, क्षमाशीलता, भ्रातृप्रेम, पत्नीव्रता, न्यायप्रियता आदि विभिन्न महान आदर्शों एवं गुणों को अपने जीवन में अपनाने की प्रेरणा देता है