Saturday, May 16, 2020

द सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ डॉ. बी. आर. आंबेडकर

बच्चा स्कूल तभी छोड़े, जब वह साक्षर हो जाए और 
अपने शेष जीवन में साक्षर बना रहे: बाबासाहेब

हम लगातार आपको बाबासाहेब के जीवन से जुड़े कुछ अनछुए प्रसंगों को बताने का प्रयास कर रहे हैं। आगे भी यह प्रयास जारी रहेगा। ये प्रसंग “डॉ. बाबासाहब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज”, “पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया”, “द सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ डॉ. बी. आर. आंबेडकर”, “द डिक्लाइन एंड फॉल ऑफ़ बुद्धिज़्म” आदि पुस्तकों से लिए गए हैं. बाबासाहेब को जानें भाग 35:-

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बाबासाहेब एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ जाने-माने शिक्षाविद् भी थे। उन्होंने अपने शिक्षा-संबंधी विचारों में प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयीय स्तर की शिक्षा को अपने ध्यान में रखा। बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल में बहस के बीच उन्होंने प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा, ‘प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य यह है कि प्राथमिक विद्यालय में दाखिल होने वाला बच्चा स्कूल तभी छोड़े, जब वह साक्षर हो जाए और अपने शेष जीवन में साक्षर बना रहे।’ ‘शिक्षा के क्षेत्र के व्यवसायीकरण की आलोचना करते हुए इसी बहस में उन्होंने कहा, ‘शिक्षा विभाग ऐसा नहीं है, जो इस आधार पर चलाया जाए कि जितना वह खर्च करता है, उतना विद्यार्थियों से वसूल किया जाए। शिक्षा को सभी संभव उपायों से व्यापक रूप में सस्ता बनाया जाना चाहिए।’ वे छात्र-वृत्ति देने की प्रचलित पद्धति को उचित नहीं मानते थे क्योंकि बच्चों के गरीब माता-पिता इसे बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने की बजाए परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। वे इसकी बजाए ऐसे छात्रावास बनाए जाने के पक्ष में थे जिन्हें सरकार या पिछड़ी जातियों को बढ़ावा देने वाली संस्थाएं चलाएं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने इसी बहस में कुछ महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए-

1. विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न हों
2. विश्वविद्यालय पूर्व तक कक्षाओं का भार अपने ऊपर लें।
3. विद्यार्थी किसी भी कॉलेज में जाकर किसी भी प्राध्यापक का व्याख्यान सुनने को स्वतंत्र हों।

वे समय-समय पर ऐसे बहुत से रचनात्मक सुझाव देते रहते थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि इन सुझावों की गंभीर समीक्षा करके इनका उचित क्रियान्वयन किया जाए।

समय आ गया है कि बाबासाहेब के विचार-सागर का गहन मंथन कर उनके विचार-रत्नों से इस राष्ट्र को समृद्ध किया जाए। उन्हें संकुचित सीमाओं में देखे जाने से हमारे समाज और राष्ट्र की गंभीर क्षति हुई है। उनके विचार जिस अनुपात में सार्थक और रचनात्मक हैं, उसी अनुपात में प्रासंगिक भी। उनके विचार समय बदलने के साथ और भी महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। इसलिए राष्ट्र-निर्माण में उनके विचारों के अनुसरण को एक आंदोलन का रूप दिए जाने की आवश्यकता है।

भारतीय दर्शन, दृष्टि और विचार को समझने का समय

भारतीय दर्शन, दृष्टि और विचार को समझने का समय

आज हम स्वतंत्र हैं। परन्तु हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई केवल राजनैतिक लड़ाई नहीं थी, हम जिस दर्शन, दृष्टि और विचार के लिये विश्व में जगद्गुरू के स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उस दर्शन, दृष्टि और विचार को फिर से स्थापित करने की लड़ाई अभी शेष है

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किसी भू-भाग के किसी अंश पर जब जीवित सृष्टि का निर्माण होता है तो उसे देश की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। इसी के साथ देश के लोग जिन जीवन मूल्यों एवं सिद्धान्तों का विकास करते हैं, उसके आधार पर उनके जो श्रृद्धा, आस्था व विश्वाास के केन्द्र बनते हैं, वह भी देश होने का एक अनिवार्य तत्व हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर भारत विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है। हमारे ऋषि, मुनियों ने साधना एवं तपस्या के आधार पर सृष्टि के गूढ़तम रहस्यों का साक्षात्कार किया, जिसे केवल भारत के लिये नहीं, संपूर्ण सृष्टि के लिए दिया, यही दृष्टिकोण भारत को जगदृगुरु बनाता है।

वैश्विक दर्शन, दृष्टि और विचार के आधार पर भारत न केवल ज्ञान और विज्ञान, न केवल समृद्धि और विकास, अपितु पराक्रम की दृष्टि से भी विश्व में अग्रणी रहा है। विश्व का कोई ऐसा फलक या क्षेत्र नहीं है, जिस पर समय के किसी न किसी कालखंड में भारत का कोई न कोई व्यक्ति शीर्ष या शीर्ष के आसपास न रहा हो।

विश्व में जिस सृष्टि का निर्माण हुआ वह केवल हमारे अथवा हमारे विज्ञान की दृष्टि से नहीं बल्कि हमारे पराक्रमी सम्राटों के पराक्रम का ही नतीजा रहा कि वह हिन्दुकुश पर्वत की सीमाओं के पार दूर-दूर तक विकसित हुई, पहुंची। परन्तु उन पराक्रमी महापुरुषों ने अपने अहंकार को दूसरों पर आरोपित करने के लिये विजय अभियान नहीं चलाये। बल्कि सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा के लिये उन्होंने अपने पराक्रम और शक्ति का प्रयोग किया। उनका ज्ञान भी विवाद के लिये नहीं था।

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बहस के लिये नहीं था। उनकी शक्ति दूसरों के उत्पीड़न के लिये नहीं थी। उनका जो समृद्धि और विकास था, वह भी अहंकार का साधन नहीं था, बल्कि विद्या और ज्ञान के लिये था। धन दूसरों की सहायता के लिये था। शक्ति अन्याय से पीड़ित लोगों की रक्षा के लिये थी। अपने इसी दर्शन-दृष्टि और विचार के आधार पर भारत विश्व गुरू रहा। परन्तु परमात्मा की इस सृष्टि में कुछ भी स्थाई और विशुद्ध नहीं है। समय के साथ-साथ विसंगतियां और विकृतियां आती हैं। हमारे जीवन में भी विसंगतियां और विकृतियां आयीं। अपनी विसंगतियों और विकृतियों के कारण 700-800 वर्षों तक न केवल राजनैतिक दृष्टि से पराधीन रहे बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में हम दूर-दूर तक पिछड़ते चले गये।

हमारे महापुरूषों ने इस देश को स्वतंत्र कराने के लिये एक लम्बा संघर्ष किया। इन 700-800 वर्षों में एक दिन भी ऐसा नहीं रहा, जब भारत माता का कोई न कोई पुत्र कहीं न कहीं बलिदान न हुआ हो। यह भी सही है कि इतने लम्बे समय तक कोई देश पराधीन नहीं रहा परन्तु यह भी सही है कि इतने लम्बे समय तक पराधीन रहने के बाद फिर कोई स्वतंत्र नहीं हुआ।

आज हम स्वतंत्र हैं। परन्तु हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई केवल राजनैतिक लड़ाई नहीं थी, हम जिस दर्शन, दृष्टि और विचार के लिये विश्व में जगद्गुरू के स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उस दर्शन, दृष्टि और विचार को फिर से स्थापित करने की लड़ाई थी, जो अभी शेष है। व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के जीवन में स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता मायने रखती है। परन्तु इससे भी ज्यादा मायने यह बात रखती है कि कोई व्यक्ति, कोई समाज, कोई राष्ट्र लम्बे समय तक अपनी स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता को कैसे सुरक्षित रखता है। यह वही व्यक्ति, वही समाज और वही राष्ट्र कर सकता है, जो शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से स्वतंत्र, संप्रभु और स्वायत्त है। इसलिये हमारे यहां शिक्षा और ज्ञान की स्वतत्रंता, संप्रभुता और स्वायत्तता बनाये रखने पर विशेष ज़ोर रहा है।

शिक्षा की स्वायत्तता, स्वतंत्रता और संप्रभुता से आशय उस शिक्षा के ज्ञान और व्यवस्था से है जो न केवल मनुष्य के मस्तिष्क बल्कि उनके हृदय का भी परिमार्जन करती है। यह वही शिक्षा कर सकती है, जो हमारे राष्ट्रीय जीवन मूल्यों के मूल में प्रतिष्ठित हो। इसलिए यह आवश्यक हो उठा कि हम भारत के इस दर्शन, दृष्टि और विचार को समझें, जिसके आधार पर हमारा शिक्षा का विचार, हमारा ज्ञान का विचार, हमारा पुरूषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का विचार हमारे जीवन का आधार था । इसी के कारण न केवल हम अपनी बल्कि सम्पूर्ण मानवता की रक्षा के लिये प्रतिबद्ध रहे। सफल भी रहे।

आज की समस्याओं, वातावरण को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। पर इस हक़ीक़त से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि हर समाज के सामने हर समय अपने—अपने तरह की समस्याएं और चुनौतियां आई हैं। रही हैं। लेकिन अगर हमने इन समस्याओं और चुनौतियों से निपटने के लिए अपने दर्शन, दृष्टि, विचार अर्थात जीवन मूल्यों के अनुकूल हल निकाला तो वह समाधान स्थायी होगा। मंगलकारी होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिये नई समस्यायें पैदा नहीं करेगा।

मैनें इस दृष्टि से विचार किया तो यह तथ्य और सत्य हाथ लगा कि हमारे ऋषियों ने अपनी आध्यात्मिक साधना और तपस्या के आधार पर सृष्टि का निर्माण परमात्मा के निर्गुण, निराकार बह्म के स्वरूप में ‘‘एको हम् बहुस्याम् ’’ (मैं अकेला हूं अनेकों रूपों में प्रकट हूं) के विचार से किया। इसी विचार से सृष्टि को जन्म दिया। इसीलिये भारतीय दर्शन, विचार और दृष्टि यह मानती है कि यह संपूर्ण सृष्टि परमात्मा का ही स्वरूप है। चूंकि यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा का ही स्वरूप है, इसीलिए हमारे भारतीय दर्शन ने प्रतिपादित किया-‘‘वसुधैव कुटुबंकम्’’ यानी यह सम्पूर्ण वसुधा हमारा परिवार है। जब सम्पूर्ण वसुधा हमारा परिवार है। जब पूरा विश्व हमारा परिवार है तो हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम सबको प्रसन्न रखें। तभी तो कहा गया है- ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः।’’

दूसरे दर्शन बहुत उदार हुए तो उन्होंने कहा- जियो और जीने दो।

भारत के दर्शन और दृष्टि में, उसकी सीमाओं में केवल मनुष्य नहीं है। केवल प्राणी नहीं है।

उसके विचार का केंद्र विंदु समस्त सृष्टि है। इसलिये हमने एक प्रकृति सुसंगत जीवनशैली का प्रतिपादन किया है। हमारे यहां विचार हुआ-

माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः ।
बान्धवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥

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दर्शन, दृष्टि और विचार के आधार पर हमारे ऋषियों ने यह प्रतिपादित किया कि यह सम्पूर्ण धरती ही नहीं, आकाश और पाताल भी हमारे स्वदेश का ही स्वरूप हैं। जो सकारात्मक सोच में लगे हैं, जो मंगल कामना करते हैं, वे सभी लोग आपस में बन्धु और बान्धव हैं। हमारी प्रार्थना है सम्पूर्ण विश्व की रक्षा हो। हमने कभी यह नहीं कहा कि जो हम कर रहे हैं वही अन्तिम सत्य है, जो हम कह रहे हैं वह भी सत्य हो सकता है, जो दूसरा कह रहा है वह भी सत्य हो सकता है और हो सकता है जो तीसरा व्यक्ति कर रहा है, वह हम दोनों से अधिक सही हो। इसलिये हमारे ऋषियों ने कहा-आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
समाज में अनेक प्रकार के चिन्तन, साथ-साथ चलने के कारण, मतभेद स्वभाविक हैं, परन्तु मतभेदों के साथ-साथ एक ही तरीका है। परस्पर विचार-विमर्श। यह संवाद की भूमि है। शास्त्रार्थ की भूमि है। जहां हारने वाला, जीतने वाले को अपना शत्रु नहीं मानता था। वह कहता था कि मुझे सत्य का ज्ञान नहीं था, आज आपने मुझे सत्य का ज्ञान कराया और इसलिये मैं, आज से आपका अनुयायी हुआ।

आज समाज में जिस तरह का संकट हैं, व्यक्तियों के बीच टकराव है, समूहों के बीच टकराव है, राष्ट्रों के बीच टकराव है। मनुष्य और प्रकृति के बीच टकराव है। अगर इन सारे टकरावों और इनकी पृष्ठभूमि पर विचार करें तो मुझे लगता है कि एकमात्र विकल्प भारत का दर्शन, दृष्टि और विचार है। किसी राष्ट्र का निर्माण अचानक नहीं होता, उसे सामर्थ्यवान, संस्कारवान, चरित्रवान और देशभक्त लोग करते हैं। ऐसे लोगों के निर्माण की व्यवस्था और प्रक्रिया का नाम शिक्षा है। इसलिये इस शिक्षा में कहीं न कहीं हमारे भारत के दर्शन, दृष्टि और विचार को शामिल किया जाना आवश्यक है।

हम जिस देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, वह केवल किसी भाग की आजादी की लड़ाई नहीं थी, 700-800 वर्षों के कालखण्ड में हमारा दर्शन, दृष्टि और विचार मन्द पड़ा था। यद्यपि हमारे पूर्वजों ने उस दर्शन, दृष्टि और विचार की रक्षा के लिए सत्ता संघर्ष किये, तभी तो वह दर्शन, दृष्टि और विचार बीज रूप में इस देश में उस समय भी सुरक्षित रहा जब अनेक प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियां खड़ी थीं।

ऐसे में हम सब लोगों का यह कर्तव्य बनता है कि हम उस दर्शन, दृष्टि, विचार को समझें। आने वाली पीढ़ियों को समझानें की चेष्टा करें कि यह सम्पूर्ण सृष्टि हमारा परिवार है। परिवार में कोई एक व्यक्ति दुखी होता है तो शेष व्यक्ति अपने आप दुखी हो जाते हैं।

कहीं भी अगर कोई पीड़ित व्यक्ति दिखायी पड़ता है तो हजारों हांथ उठते हैं, उस पीड़ित और असहाय व्यक्ति की मदद के लिये। सरकार अपना काम करती है। परन्तु समाज इस वसुधाको अपना परिवार मानने के विचार में रहा है। इसलिये किसी के साथ अन्याय, अत्याचार और शोषण करने का विचार हमारे सिद्धान्तों और विचार के विरूद्ध है। अगर ऐसा विचार आता है तो पीड़ित की सहायता के लिये अपने ज्ञान, धन, शक्ति, पुरूषार्थ का उपयोग करते हैं।

हमारे यहां पुरूषार्थ चतुष्टय में धर्म में भी अर्थ, काम, मोक्ष में समाहित है, अर्थ में भी धर्म, काम एवं मोक्ष शामिल है, इसी तरह काम में भी धर्म, अर्थ, मोक्ष शामिल है, और मोक्ष भी धर्म, अर्थ काम ग्रहित है। ऐसा मोक्ष कालजयी नहीं हो सकता, जिसमें पुरुषार्थ चतुष्टय न हो। यदि आने वाली पीढ़ियां इससे जुड़ती हैं तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान वे स्वतः कर लेंगी, उनको किसी बड़े कानून की, बड़े विधान की या सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता कम से कम पड़ेगी। यही नहीं, जो इस दर्शन, दृष्टि और विचार के आधार पर खड़े हैं, वे न केवल अपना निर्माण करेंगे बल्कि अपने से जुड़े हुये प्राणियों और सृष्टि के शेष हिस्सों का भी संरक्षण और संवर्धन करेंगे। तब यह सम्पूर्ण प्रकृति, मनुष्य जाति का संवर्धन और संरक्षण भी सुनिश्चित करेगी। कहा जा सकेगा-धर्मो रक्षति रक्षितः।

कोरोना संकट: भारतीय चिकित्सा पद्धति और उपचार

कोरोना संकट: भारतीय चिकित्सा पद्धति और उपचार


अमेरिका के एन आई एच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (मैरीलैंड )ने यह पाया भारतीय ध्यान योग की पद्धति ब्लड प्रेशर के मरीजों को अत्यधिक लाभ देती है। एन आई एच अमेरिका एलोपैथी के अलावा वैकल्पिक आयुर्वेदिक स्वास्थ्य उपचार विधि पर कई वर्षों से शोध कर रहा है। अमेरिकी वैज्ञानिक भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति चरक ऋषि और आयुर्वेद के सिद्धांतों का बहुत गंभीर अध्ययन कर रहे हैं

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हमें यह सुनने में मिलता है कि कई प्रकार के संक्रमण जो फैलते हैं वह कुछ समय के पश्चात अपने आप दम तोड़ देते हैं जैसे जहां पर उन्हें मानव संपर्क नहीं मिलता है या यूं कहिए अटलांटिक डेजर्ट में या सहारा डेजर्ट में जहां मनुष्य संपर्क में नहीं आते हैं तब क्रमण अपने आप दम तोड़ देता है।
लेकिन कोरोना वायरस एक अलग प्रकार का वायरस देखने को मिलता है यह इटली जैसे ठंडे प्रदेशों में अफ्रीका के उत्तरी क्षेत्रों में भारत , चीन में या कहें लगभग सभी महाद्वीपों में यह व्यापक रूप से फैल गया है। सभी कॉन्टिनेंट का वातावरण जलवायु सभी अलग-अलग प्रकार के है और यह जहां जहां संपर्क में आया वहां पर यह व्यापक रूप से फैला चाहे वहां सर्दी हो या गर्मी हो या आर्द्रता वाला क्षेत्र रहा है।
अब हम बात करते हैं भारत की भारत की जलवायु गर्म है यहां पर वह प्रयोग सटीक नहीं हो सकते जो यूरोप या अमेरिका में सटीक बैठते हो क्योंकि यूरोप और अमेरिका का वातावरण भारतीय वातावरण से बिल्कुल भिन्न है तो भी ग्लोबल विलेज और संचार गंतव्य स्थानों पर पहुंचने के त्रिव साधनों के होने के कारण हमारे यहां के वैज्ञानिक और डॉक्टर पिछले 40 वर्षों में अमेरिका यूरोप या पश्चिम जगत की मान्यताओं को ही प्रमाणित मानते हैं और अब इस मामले में व्यापक रूप से थोड़ा बहुत विरोधाभास भी देखने को मिल रहा है ।

उपवास

ईशा फाउंडेशन में सतगुरु से एक परिचर्चा में आईआईटी के छात्र ने पूछा के उपवास को ले करके मैंने पहले रूढ़ीवादी दी मान्यताओं को सुना कि यह भारत के रूढ़िवादी लोग उपवास को प्रमाणिक मानते हैं लेकिन जब अमेरिका के शोधकर्ताओं ने कहा कि उपवास से जीवन में एकाग्रता शुद्धि और स्वास्थ्य में अत्यधिक सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है तब जाकर के मैंने भी उपवास रखना प्रारंभ किया है और महीने में मैं 3 बार उपवास रखता हूं आखिर इसका कारण क्या है जब पश्चिम जगत किसी शोध को मान्यता देता है तभी भारत के लोग उसे प्रमाणित मानते हैं!

सतगुरु ने बहुत सुंदर उत्तर दिया शायद यह हमारे रंग का दोष है और हम गोरे रंग पर अधिक विश्वास करते हैं और अगर वह गोरा रंग पश्चिम का हो तो ज्यादा विश्वास करते हैं।

भारत की प्राचीन मान्यताएं भारत में रोगों और संक्रमण से लड़ने हेतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बिल्कुल सटीक बैठती थी जिसे समय के अनुसार अंधाधुंध भौतिकवाद की दौड़ में हम भूलते गए इस विषय पर पहले भी कई बार लिखा जा चुका है किंतु हम मानते नहीं हम तो तभी मानते हैं जब पश्चिम जगत की मीडिया और वहां के वैज्ञानिक इस पर अपनी राय सहमति की दे देते हैं।

उपवास, उपवास हमारी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है सद्गुरु कहते हैं भोजन के पश्चात मैंने कई बीमारियों को जन्म लेते देखा है और उन बीमारियों के कारण से मैंने कई लोगों की मृत्यु देखी है लेकिन खाली पेट रहने और उपवास रखने के पश्चात शायद ही मैंने किसी को मरते हुए देखा है। हमारा शरीर और हमारा दिमाग तभी अच्छे से काम कर सकता है जब हमारा पेट खाली हो हमारे शरीर में कई सुधार तब हो सकते हैं जब हमारा शरीर या पेट खाली हो मेरा मानना है दुनिया में कई बड़े अविष्कार भूखे पेट रहते हुए ही हुए हैं जब शरीर भूखा रहता है तो दिमाग की यांत्रिकी तेज गति से कार्य करती है और वही अविष्कार की ओर बढ़ती है।

अफ्रीका के एक छोटे से देश मलावी में विलियम कम क्वाला 14 वर्ष के एक बालक ने अपने गांव में भीषण अकाल में जिसमें उसकी एक गाय और एक उसका कुत्ता भी भूख से मर गया था और उसके घर में पड़े हुए कुछ मक्की के दाने भी चोरों ने चोरी कर लिए थे विकट परिस्थिति में और भूखे पेट विलियम ने अपने पिता की साइकिल और कुछ टूटे हुए इलेक्ट्रॉनिक सामानों को जोड़कर के पवन चक्की का आविष्कार किया था।और हवा से ऊर्जा को कैसे प्राप्त कर सकते हैं और वह सिंचाई में किस प्रकार से सहयोगी हो सकता है इसके कारण से अपने सूखाग्रस्त गांव को कृषि योग्य भूमि में बदल दिया मलावी के इस बालक की कहानी पर हॉलीवुड मैं प्रसिद्ध फिल्में भी बन चुकी है।

भूख के कारण से विलियम ने अविष्कार किया और हजारों भूखे लोगों को भोजन की व्यवस्था में एक साधक के रूप में कार्य किया। उपवास हमारी प्रतिरोधक क्षमता को ही नहीं बढ़ाता अपितु सामाजिक और राजनीतिक जीवन में उपवास एक संदेश का भी बहुत बड़ा हथियार होता है जैसे गांधी जी का उपवास विश्व प्रसिद्ध रहा अन्ना हजारे का उपवास आज के आंदोलन का मुख्य हथियार बना उपवास कई रोगों को जड़ से समाप्त कर सकता है उपवास से श्रद्धा जागृत होती है और मनुष्य सत्य की ओर बढ़ता है उपवास आचरण की शुद्धता की श्रेष्ठ औषधि है।

उपवास शरीर में प्रतिरोधक क्षमता ओं में आश्चर्यजनक वृद्धि करता है और यह कोरोनावायरस में अत्यधिक सहायक सिद्ध हो सकता है। पिछले 80 वर्षों में विज्ञान ने बहुत तेज गति से प्रगति की है और बहुत तेजी से हवाई जहाज पेट्रोल-डीजल ऊर्जा का अत्यधिक प्रयोग हुआ है आवागमन के साधनों ने बीमारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाने में बहुत मदद की है और मनुष्य का शरीर अब एक बाजार में बदल गया है और इस शरीर को ठीक रखने के लिए बड़ी दवा कंपनियों का गिरोह पूरे विश्व में काम कर रहा है।
अब विश्व के जितने भी दवा कंपनियां है वह जीवन रक्षा और लाभ के लिए नहीं अपितु मुनाफाखोरी के लिए काम करने लगी है।

व्यापार का सिद्धांत है अगर व्यापार लाभ के लिए होता है तो उसका दृष्टिकोण व्यापक और जन कल्याण हेतु होता है और व्यापार अगर मुनाफाखोरी में बदल जाए तो वह डकैती के अलावा कुछ नहीं करता ।

शाकाहार

इसी प्रकार अगली कड़ी में उपवास के साथ शाकाहार जीवन रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है शाकाहारी व्यक्ति अपना जीवन कम बीमारियों के साथ सहज और स्वस्थ रूप से जीता है। शाकाहारी भोजन में संतृप्त वसा प्राणी प्रोटीन का स्तर कम होता है और मैग्निशियम फाइबर पोटैशियम फोलेट विटामिन सी ई एंटीऑक्सीडेंट का स्तर ऊंचा होता है। यह प्रमाणिक मान्यता है की शाकाहारी लोग मांसाहारी लोगों से ज्यादा समय तक जीते हैं शाकाहारी भोजन आसानी से पच जाता है जिसके चलते आपका दिमाग स्वस्थ रहता है शाकाहारी भोजन के कारण से विषाक्त पदार्थों का शरीर में संग्रह कम होता है साथ यानी शरीर का पाचन तंत्र बहुत अच्छा और सुदृढ़ होता है ही पाचन तंत्र को नुकसान कम पहुंचता है।

योग और ध्यान

योग और ध्यान से ब्लड प्रेशर के मरीजों में अप्रत्याशित परिवर्तन देखने को मिला है जो कहते थे ब्लड प्रेशर की बीमारी कभी समाप्त नहीं हो सकती बल्कि यह समाप्त भी हुई और उच्च रक्तचाप के रोगी ने पूर्व स्वास्थ्य जीवन को जीने लगे हैं।

अमेरिका के एन आई एच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (मैरीलैंड )ने यह पाया भारतीय ध्यान योग की पद्धति ब्लड प्रेशर के मरीजों को अत्यधिक लाभ देती है। एन आई एच अमेरिका एलोपैथी के अलावा वैकल्पिक आयुर्वेदिक स्वास्थ्य उपचार विधि पर कई वर्षों से शोध कर रहा है। अमेरिकी वैज्ञानिक भारतीय आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति चरक ऋषि और आयुर्वेद के सिद्धांतों का बहुत गंभीर अध्ययन कर रहे हैं

डॉक्टर ए के वर्मा जो स्वयं एलोपैथी के डॉक्टर है अपने ब्लड प्रेशर के इलाज के लिए उन्होंने आयुर्वेदिक की पद्धति को अपनाया। वर्मा प्रोफेसर हैं एंडोक्राइन सर्जरी विभाग संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान लखनऊ में उन्होंने अपने अनुभव से बताया ध्यान और योग ने मुझे काम करने की क्षमताओं में आशातीत सफलता दिलवाई और मेरा ब्लड प्रेशर लगभग समाप्ति की ओर है। अंततः प्रत्येक दिन कम से कम 20 मिनट योग और ध्यान करने से हम अपने मन पर नियंत्रण करके शाकाहार ,उपवास ,और पानी पीने की पद्धति को ठीक से अपने जीवन को व्यवस्थित कर सकते हैं। रोगों से लड़ने की क्षमताओं में हमारे शरीर में अत्यधिक सकारात्मक बदलाव आ सकता है, जो करोना जैसी वैश्विक महामारी से लड़ने में हमारे समाज के लिए अत्यधिक व्यवहार कारगर उपकरण साबित हो सकता है।