Friday, September 25, 2020

पं. दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर विशेष : दीनों पर दया करने वाले दीनदयाल

 समाज के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति भी एक दिन सुखी और संपन्न जीवन बिताए, इसकी कल्पना दीनदयाल जी ने  की थी। यह अच्छी बात है कि आज उनकी इस कल्पना को पूरा करने के लिए कई सरकारें काम कर रही हैं।


राष्ट्र का अस्तित्व उसके नागरिकों के जीवन का ध्येयभूत आधार है। जब एक मानव-समुदाय के समक्ष एक व्रत, विचार या आदर्श रहता है एवं वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृभाव से देखता है तो राष्ट्र कहलाता है। इनमें से एक का भी अभाव रहा तो राष्ट्र नहीं बनेगा।पं.दीनदयाल उपाध्याय

सहृदयता, बुद्धिमता, सक्रियता एवं अध्यवसायी वृत्ति वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक व्यक्ति नहीं, अपितु एक विचार और जीवनशैली हैं। राष्ट्र एवं समाज के प्रति आजीवन समर्पित रहने वाले पंडित जी ने अपने मौलिक चिंतन से राष्ट्र-जीवन को प्रेरित और प्रभावित किया। वे ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ के संस्थापक एवं ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पाञ्चजन्य’, ‘दैनिक स्वदेश’ व ‘तरुण भारत’ जैसी राष्ट्रवादी पत्र-पत्रिकाओं के प्रेरणास्रोत भी थे। भारतीय समाज-जीवन को सुखी, संपन्न एवं मंगलकारी बनाने के निमित्त उन्होंने ‘एकात्म मानवदर्शन’ व ‘अन्त्योदय’ की अद्भुत संकल्पना प्रस्तुत की। उनके चिंतन के मूल में लोकमंगल एवं राष्ट्र-कल्याण का भाव समाहित है। उन्होंने राष्ट्र को धर्म, अध्यात्म एवं संस्कृति का सनातन पुंज बताते हुए राजनीति की नई व्याख्या की। वे गांधी, तिलक एवं सुभाष की परंपरा के वाहक थे। वह दलगत एवं सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर वास्तव में एक ऐसे राजनीतिक दर्शन को विकसित करना चाहते थे जो भारत की प्रकृति एवं परंपरा के अनुकूल हो एवं राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने में समर्थ हो। अपनी व्याख्या को उन्होंने ‘एकात्म मानववाद’ का नाम दिया। एक ओर उन्होंने जहां समाजवाद, मार्क्सवाद एवं पूंजीवाद सरीखी अभारतीय विचारधाराओं को भारतीय चिंतन-परंपरा, भारतीय दृष्टिकोण एवं भारतीय जीवन-शैली के सर्वथा प्रतिकूल माना, उन्हें अस्वीकार किया, वहीं, दूसरी ओर भारतीय मानस के अनुकूल ‘एकात्म मानवदर्शन’ व ‘अन्त्योदय’ की संकल्पना प्रस्तुत कर भारत को भारत की दृष्टि से देखने-समझने का एक सार्थक सूत्र भी दिया।


‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की मान्यता से अनुप्राणित उनका चिंतन ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ भाव-साधना का सिद्धांत है। उन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की प्रस्तावना करते हुए बताया कि ये अन्यान्योश्रित हैं। वे उत्पादन में वृद्धि, उपभोग में संयम और वितरण में समानता के पक्षधर थे। व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि की एकात्मता और शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के उन्नयन की चिंता उनका मूल ध्येय है।  अभारतीय विचारधाराओं में मानव-मात्र को टुकड़ों में बांट कर देखने की पद्धति अपनाई गई है। अत: वहां सम्यक मूल्यांकन का कोई अवकाश नहीं होता। दीनदयाल जी का स्पष्ट मत है कि एकांगी होकर मनुष्य को केवल ‘आर्थिक प्राणी’ के रूप में देखने की परंपरा नितांत अभारतीय है। इससे मानव-सभ्यता के विकास के उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता, जो किसी राष्ट्र को ‘परम वैभव’ तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होते हैं। उनकी दृष्टि में मनुष्य को सर्वप्रथम ‘मनुष्य’ ही माना जाना चाहिए। उसकी समस्त आवश्यकताओं, उसके जीवन के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आयामों को ध्यान में रखकर चिंतन करते हुए संतुलित-विकास के पथ पर निरंतर आगे बढ़ना चाहिए।


दीनदयाल जी भारत की ‘चिति’ और ‘विराट’ को अपने चिंतन-मनन के केंद्र में रखते हैं।


उनकी स्पष्ट धारणा है कि हमें अपनी प्राचीन संस्कृति का विचार अवश्य करना चाहिए। किंतु हम इस बात के प्रति भी सचेत रहें कि हम पुरातत्ववेत्ता नहीं हैं। हमारा ध्येय अपनी संस्कृति का संरक्षण करना ही नहीं, अपितु उसे गति देकर सजीव व सक्षम बनाए रखना भी होना चाहिए। हमें अपनी रूढ़ियां समाप्त करनी चाहिए। अपनी कमियों की परख कर उनमें सुधार करना चाहिए। सामाजिक जीवन में मौजूद भेदभाव, छुआछूत एवं अस्पृश्यता जैसी विभेदकारी धारणाओं को तोड़ना चाहिए। हमें प्रत्येक मनुष्य से सबसे पहले मनुष्य के रूप में जुड़ना चाहिए, क्योंकि सांस्कृतिक एकता एवं राष्ट्र की एकता के लिए उपरोक्त विभेदकारी विचार सर्वथा घातक है।

समाज ‘स्वयंभू’ है। जिस प्रकार व्यक्ति पैदा होता है, उसी प्रकार समाज भी पैदा होता है। व्यक्ति मिलकर कभी समाज को नहीं बनाते। ......वास्तव में समाज तो एक ऐसी सत्ता है, जिसकी अपनी आत्मा है, जिसका अपना एक जीवन है, इसलिए यह भी उसी प्रकार से जीवमान सत्ता है, जैसे मनुष्य जीवमान सत्ता है।

दीनदयाल जी की दृष्टि में धर्म, अर्थ एवं काम की पूर्ति व इनके सामंजस्य से मोक्ष की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। इनमें से किसी एक के प्रति भी विशेष आग्रह या असंतुलन व्यक्ति के जीवन को समस्याग्रस्त बना सकता है। दीनदयाल जी अपने पूरे चिंतन में बारम्बार इस विचार पर बल देते हैं, ‘‘मानव केवल एक व्यक्ति मात्र नहीं है। शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा का समुच्चय है। व्यक्ति केवल एकवचन ‘मैं’ तक सीमित नहीं, उसका बहुवचन ‘हम’ से भी अभिन्न संबंध रखता है। अत: हमें समाज व समष्टि का विचार करना होगा।’’


वास्तव में, दीनदयाल जी व्यष्टि एवं समष्टि या कहें कि व्यक्ति एवं समाज को एक-दूसरे की सापेक्षता में देखने के आग्रही हैं। यह विचार पश्चिम के दार्शनिक-विचारों से भिन्न है। उनकी दृष्टि में, ‘‘मानव न केवल व्यक्ति है, मानव न केवल समाज है, वरन् मानव व्यक्ति एवं समाज की एकात्मता में से पैदा होता है। व्यक्ति एवं समाज को बांट दें तो मानव मर जाता है। अस्तित्व में ही नहीं आता। व्यष्टि एवं समष्टि एकात्म इकाई है। इस एकात्म इकाई का नाम मानव है। इसलिए मानव को सुखी करना है तो व्यक्तिवादी होकर नहीं कर सकते, क्योंकि व्यक्तिवादी समाज की उपेक्षा करता है। समाजवादी होकर भी नहीं कर सकते, क्योंकि समाजवाद व्यक्ति के व्यक्तित्व को कुचल देता है।’’ स्पष्ट है कि व्यष्टि से समष्टि एवं परमेष्टि तक पहुंचने की मनुष्य की यात्रा अलग-अलग खण्डों में विभाजित नहीं है। उसे अलग-अलग घेरे हुए नहीं है। यह एक-दूसरे से पूर्णत: असंबद्ध नहीं है। वह एक ही केंद्र से निसृत समग्र जीवन में सातत्य के साथ प्रवाहमान कहीं पर भी खंडित न होने वाला आवृत है। ‘एकात्म मानवदर्शन’ व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि व परमेष्टि तक की इसी यात्रा, इसी संबद्धता, मानव-जीवन की इसी समग्रता, इसी सातत्य व प्रवाह एवं इसी आवृत को समझने का सहज-सूत्र है।


‘एकात्म मानवदर्शन’ की संकल्पनाकार दीनदयाल जी के चिंतन का फलक बहुत व्यापक एवं सुगठित है। वे एक साथ व्यक्ति, समाज, राजनीति, धर्म, राष्ट्र आदि न जाने कितने विषयों पर विचार करते हैं। किंतु प्रत्येक जगह उनके विचारों में एक सह-संबंध, पारस्परिकता एवं नयापन परिलक्षित होता है। समाज के विषय में वे लिखते हैं, ‘‘समाज ‘स्वयंभू’ है। जिस प्रकार व्यक्ति पैदा होता है, उसी प्रकार समाज भी पैदा होता है। व्यक्ति मिलकर कभी समाज को नहीं बनाते। ......वास्तव में समाज तो एक ऐसी सत्ता है, जिसकी अपनी आत्मा है, जिसका अपना एक जीवन है, इसलिए यह भी उसी प्रकार से जीवमान सत्ता है, जैसे मनुष्य जीवमान सत्ता।’’ वास्तव में, यह समाज की भौतिक व्याख्या नहीं, अपितु तात्विक व्याख्या है। इसलिए यहां समाज को पश्चिम  के ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ के सूत्र के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता। ‘राष्ट्र’ पर चिंतन करते हुए पंडित जी ने लिखा है, ‘‘राष्ट्र का अस्तित्व उसके नागरिकों के जीवन का ध्येयभूत आधार है। जब एक मानव-समुदाय के समक्ष एक व्रत, विचार या आदर्श रहता है एवं वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृभाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है। इनमें से एक का भी अभाव रहा तो राष्ट्र नहीं बनेगा।’’


स्पष्ट है कि भारतीय चिंतन परंपरा में ‘राष्ट्र’ केवल भौतिक सीमाओं पर आधारित भौगोलिक इकाई या भौतिक सरणी नहीं है। इसका संबंध समानधर्मी, समानदर्शी एवं समानुभूति पर आधारित सामूहिक समभाव से है। यही कारण है कि पंडित जी ‘राष्ट्र’ की ऐसी परिकल्पना कर ‘भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को महत्त्व देते हैं। ‘भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की विचार-सरणी को मानने वाला प्रत्येक व्यक्ति समानव्रती, सामान दर्शन व सामान मूल्यों को मानने वाला होता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप तक प्रत्येक भारतीय एक-दूसरे से ‘एकात्म-भाव’ से जुड़ा हुआ है। भले ही उसकी भाषा अलग हो, संस्कृति अलग हो, रहन-सहन अलग हो, पंथ-संप्रदाय अलग हो, किंतु वह संपूर्ण भारतभूमि के कण-कण को पवित्र मनाता है। सबके हित की कामना करता है।


इतना ही नहीं, समान व्रत, समान दर्शन, समान मूल्यों को मानने वाले व्यक्ति संसार में जहां भी उपस्थित हैं, वे सभी इस भारत-भूमि, इस राष्ट्र के समभाव एवं संकल्पना में समाहित हैं। इस प्रकार दीनदयाल जी की ‘राष्ट्र’ की संकल्पना व ‘भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की विचार-प्रणाली भी संपूर्णता एवं सामूहिकता की भावना से अनुप्राणित है। यह दृष्टि पश्चिम की ‘नेशन’ एवं ‘नेशनलिज्म’ अर्थात ‘राष्ट्र’ एवं ‘राष्ट्रवाद’ की दृष्टि से सर्वथा भिन्न है। वे ‘एकात्म मानव-दर्शन’ के तहत ‘राष्ट्र’ की भी तात्विक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार, ‘‘राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है। उसका एक शास्त्रीय नाम है। इसे ‘चिति’ कहा गया है।’’ इस प्रकार दीनदयाल जी ‘राष्ट्र’ की संकल्पना में व्यक्ति को एक साधन के रूप में देखते हैं। व्यक्ति स्वयं के अतिरिक्त अपने राष्ट्र का भी प्रतिनिधित्व करता है। स्पष्ट है कि दीनदयाल जी द्वारा प्रस्तावित ‘एकात्म मानव-दर्शन’ एक वायवीय विचार नहीं है, बल्कि एक कालजयी सिद्धांत है।