Sunday, May 3, 2020

शस्त्र और शास्त्र के अनूठे समन्वयक भगवान परशुराम:

शस्त्र और शास्त्र के अनूठे समन्वयक भगवान परशुराम:

भगवान परशुराम का समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से परिपूर्ण है। वे न सिर्फ ब्रह्मास्त् समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में पारंगत थे, बल्कि शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र की रचना उन्होंने ही की थी.



इस धराधाम पर अवतरित भगवान परशुराम ऐसी ही अमर विभूति हैं जिनके प्रतिपादित सिद्धांत आज भी अपनी प्रासंगिकता रखते हैं। अपने युग की सबसे बड़ी धार्मिक क्रांति के पुरोधा भगवान परशुराम की मान्यता थी कि स्वस्थ समाज की संरचना के लिए ब्रह्मशक्ति और शस्त्र शक्ति दोनों का समन्वय आवश्यक है। पौराणिक परंपरा के अष्ट चिरंजीवियों (अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा महर्षि मार्कण्डेय) की कड़ी में गिने जाने वाले महर्षि परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है।
 भृगुकुल शिरोमणि परशुराम जी ऋषियों के ओज और क्षत्रियों के तेज दोनों का अद्भुत संगम माने जाते हैं। इनके माता-पिता ऋषि जमदग्नि व रेणुका दोनों ही विलक्षण गुणों से सम्पन्न थे। जहां जमदग्नि जी को आग पर नियंत्रण पाने का वरदान प्राप्त था, वहीं माता रेणुका को पानी पर नियंत्रण पाने का। देवराज इंद्र्र के वरदान के फलस्वरूप ऋषि दम्पती की पांचवीं संतान के रूप में बैसाख माह की तृतीया को जन्मे परशुराम जी का प्रारंभिक नाम 'राम' था जो कालान्तर में महादेव से परशु प्राप्त होने के बाद परशुराम हो गया। राम बालपन से ही बेहद साहसी, पराक्रमी, त्यागी व तपस्वी स्वभाव के थे। उन्होंने बहुत कम आयु में अपने पिता से धनुर्विद्या सीख ली थी। कहते हैं, महादेव शिव के प्रति विशेष श्रद्धा भाव के चलते एक बार बालक राम भगवान शंकर की आराधना करने कैलाश जा पहुंचे। वहां देवाधिदेव ने उनकी भक्ति और शक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अनेक अस्त्र-शस्त्रों सहित दिव्य परशु प्रदान किया। इस अमोघ परशु को धारण करने के बाद बालक राम 'परशुराम' के नाम से विख्यात हो गये।
परशुराम जी की गणना महान पितृभक्तों में होती है। श्रीमद्भागवत में एक दृष्टान्त है कि एक बार माता रेणुका स्नान करने व हवन हेतु जल लाने गंगा तट गयीं। उस वक्त वहां गन्धर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे। रेणुका उनकी जलक्रीड़ा देखने में ऐसी निमग्न हो गयीं कि उन्हें समय का बोध ही न रहा। जमदग्नि ऋषि को जब अपनी पत्नी के उस मर्यादा विरोधी आचरण का पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर अपने पुत्रों को मां का शीश काटने की आज्ञा दी। प्रथम चारों पुत्रों ने पिता की आज्ञा नहीं मानी, किन्तु परशुराम ने पिता की आज्ञा पालन कर मां का सिर काट दिया। कहते हैं कि अपनी आज्ञा की अवहेलना से क्रोधित हो जमदग्नि ने जहां अपने चार पुत्रों को जड़ हो जाने का श्राप दिया, वहीं परशुराम से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। तब परशुराम ने पिता से वरदान में माता तथा अपने चारों भाइयों का पुनर्जीवन मांग कर न सिर्फ अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया अपितु अपने पिता को भी उनकी भूल का भान करा दिया।



परशुराम जी का समूचा जीवन अनुपम प्रेरणाओं व उपलब्धियों से परिपूर्ण है। वे न सिर्फ ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में पारंगत थे अपितु योग, वेद और नीति तथा तंत्र कर्म में भी निष्णात थे। शिव पंचचत्वारिंशनाम स्तोत्र की रचना परशुराम जी ने ही की थी। कहते हैं, वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे, खूंखार वन्यजीव उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे। इन्हें श्रेष्ठ राजनीति के मूल्यों का प्रतिष्ठाता माना गया है जो शासन में मानवीय गरिमा की सर्वोच्चता के पक्षधर थे। अन्याय के विरुद्ध आवेशपूर्ण आक्रामकता के विशिष्ट गुण के कारण उन्हें भगवान विष्णु के 'आवेशावतार' की संज्ञा दी गयी है। न्याय के प्रति उनका समर्पण इतना था कि उन्होंने हमेशा अन्यायी को खुद ही दंडित किया। दुनिया भर में शस्त्रविद्या के महान गुरु के नाम से विख्यात भगवान परशुराम ने महाभारत युग में भी अपने ज्ञान से कई महारथियों को शस्त्र विद्या प्रदान की थी।
जिस प्रकार देवनदी गंगा को धरती पर लाने का श्रेय राजा भगीरथ को जाता है ठीक उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुंड (परशुराम कुंड) से और फिर लौहकुंड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को धरती पर लाने का श्रेय परशुराम जी को ही जाता है। यह भी कहा जाता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। तमाम पौराणिक उद्धरणों के अनुसार केरल, कन्याकुमारी व रामेश्वरम की संस्थापना भगवान परशुराम ने ही की थी। उन्होंने जिस स्थान पर तपस्या की थी, वह स्थान आज तिरुअनंतपुरम के नाम से प्रसिद्ध है। केरल में आज भी पुरोहित वर्ग संकल्प मंत्र में परशुराम क्षेत्र का उच्चारण कर उक्त समूचे क्षेत्र को परशुराम की धरती की मान्यता देता है। विदेहराज जनक की राजसभा में सीता स्वयंवर के दौरान श्रीराम द्वारा शिवधनुष तोड़ने पर परशुरामजी का क्रोध व राम के अनुज लक्ष्मण से उनका संवाद सनातनधर्मियों में सर्वविदित है; मगर उनकी महानता इस बात में है कि ज्यों ही उन्हें अवतारी श्रीराम के शौर्य, पराक्रम व धर्मनिष्ठा का बोध हुआ और उनको योग्य क्षत्रिय कुलभूषण प्राप्त हो गया तो उन्होंने स्वत: दिव्य परशु सहित अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र राम को सौंप दिये और महेन्द्र पर्वत पर तप करने के लिए चले गये। कांवड़ यात्रा का शुभारंभ परशुराम जी ने किया था। अंत्योदय की बुनियाद भी परशुराम जी ने ही डाली थी। समाज सुधार और समाज के शोषित-पीडि़त वर्ग को कृषिकर्म से जोड़कर उन्हें स्वावलंबन का पाठ पढ़ाने में भी परशुराम जी की महती भूमिका रही है।


                                     पाप संहारक परशुराम

सर्वविदित है कि परशुराम जी का क्षत्रियों के विरुद्ध अस्त्र उठाना उनकी उस अन्याय के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया थी जो महिष्मती राज्य के उस काल के हैहयवंशीय क्षत्रिय शासक आम प्रजा पर कर रहे थे, निर्दोष पिता की हत्या ने उनकी क्रोधाग्नि में घी का काम किया।

कहते हैं, उन दिनों महिष्मती राज्य का हैहय क्षत्रिय कार्तवीर्य सहस्रार्जुन राजमद में मदान्ध था। समूची प्रजा उसके क्रूर अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर कर ही थी। भृगुवंशीय ब्राह्मणों (परशुरामजी के वंशजों) ने जब उसे रोकने का प्रयत्न किया तो अहंकार में भरे सहस्रार्जुन ने उनके आश्रम पर धावा बोलकर उसे तहस-नहस कर दिया। इस पर भी क्रोध शांत न हुआ तो उसने परशुराम जी के पिता ऋषि जमदग्नि पर हमला बोलकर उन्हें 21 स्थानों से काटकर मार डाला। तब परशुराम जी ने अपने परशु से कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन को उसके समूचे कुल समेत मृत्युलोक पहुंचा दिया। 

                           संग्रह का नहीं, दान का महापर्व

अक्षय तृतीया को ईश्वरीय तिथि माना जाता है। इस दिन बिना पंचाग देखे कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है। भविष्य पुराण के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन सतयुग एवं त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में भगवान परशुराम, नर-नारायण एवं हयग्रीव आदि तीन अवतार अक्षय तृतीया के दिन ही प्रकट हुए थे। तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के पट भी अक्षय तृतीया को खुलते हैं। वृंदावन के बांके बिहारी के चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया को होते हैं। तृतीया तिथि मां गौरी की तिथि है जो बल-वुद्धिवर्धक मानी गयी है। जीवन में सुख, शांति, सौभाग्य तथा समृद्धि हेतु इस दिन शिव-पार्वती और नर-नारायण का पूजन शुभ फलदायी माना गया है।
भारतीय मनीषियों की मान्यता है कि वैशाख मास के शुक्लपक्ष की तृतीया में ऐसी दिव्य ऊर्जा है कि इस दिन किया जाने वाला जप-तप, दान, हवन, तीर्थस्थान का पुण्यफल 'अक्षय' हो जाता है। वैशाख मास में भगवान सूर्य की तेज धूप तथा प्रचंड गर्मी से प्रत्येक जीवधारी भूख-प्यास से व्याकुल हो उठता है इसलिए प्यासे को पानी पिलाना व यथा सामर्थ्य दान-पुण्य करना इस तिथि का सर्वप्रथम संदेश है।

भारतीय जीवनशैली को अपनाकर जिया जा सकता है सुखी जीवन:

भारतीय जीवनशैली को अपनाकर जिया जा सकता है सुखी जीवन:

हिन्दू संस्कृति की परंपराएं वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं। ऐसे में उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना हर पक्ष से वैज्ञानिकता एवं तार्किकता से परिपूर्ण है। लेकिन आधुनिकीकरण एवं मशीनीकरण ने धरती को बहुत अस्त व्यस्त किया। उसी का परिणाम है कि समय-समय पर दुष्परिणाम के रूप में भयानक महामारियां और त्रासदी हमारे सामने आती हैं

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आज विश्व भर में फैले कोरोना वायरस के कहर ने लोगों को हिन्दू संस्कृति में निहित मान्यताओं की ओर उन्मुख किया है। वे जाने-अनजाने भारतीय संस्कृति से वह सबक ले रहे हैं, जिनके माध्यम से उन्हें लगता है कि वे स्वयं को इस भयानक संक्रमण से बचा सकते हैं। कोरोना के चलते आज स्थितियां ऐसी बनी हैं कि लोग अपने सारे काम छोड़कर घरों में बैठने के लिए मजबूर हुए हैं। प्राथमिक रूप से इसका जो इलाज निकलकर आया है वह है सामाजिक दूरी।
इसके माध्यम से इससे बचा जा सकता है। लेकिन इस दौरान ध्यान देने वाली बात यह है कि कोरोना के डर से लोग जिन नियमों का पालन कर रहे हैं, वे हमें हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति की याद दिलाते हैं। हिन्दू धर्म में परस्पर नमस्ते करने का प्रचलन रहा है। हाथ मिलाना व गले मिलने का कल्चर पश्चिम से आया। सनातन हिन्दू धर्म सादा जीवन, उच्च विचार जैसी मान्यताओं को प्रश्रय देता है। लेकिन पाश्चात्य सभ्यता एवं जीवनशैली की चकाचैंध में लोगों ने अपनी संस्कृति को छोड़कर पश्चिम की संस्कृति को अपनाया था। लोग हाथ जोड़कर नमस्ते करने के बजाए हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाने एवं गले लगाने को ज्यादा सभ्य समझने लगे थे। जबकि हाथ जोड़ने के वैज्ञानिक पहलू पर उनका कभी ध्यान नहीं गया। हाथ जोड़कर नमस्ते करने पर जब दोनों हाथ की उंगलियां एक साथ मिलती हैं तब नसों में आपस में एक दबाव बनता है, जो एक्यूपंचर का काम करता है।
इससे स्मरण शक्ति तीव्र होती है तथा यह आंख, नाक एवं कान के लिए भी लाभप्रद होती है। हिन्दू परिवारों में सदैव बाहर से आने के बाद हाथ पैर धो कर ही घर के भीतर घुसने और जमीन पर सुखासन में बैठकर खाने की परंपरा रही है। सुखासन में बैठ कर खाने से पाचन संबंधित परेशानियां कम होती हैं। आज के समय में कोरोना से बचाव के लिए बार-बार साबुन से हाथ धोने की बात की जा रही है। जबकि पहले के समय घरों का निर्माण भी कुछ इस प्रकार होता था कि दरवाजे से घुसते ही नल और पानी की व्यवस्था रहती थी जिससे व्यक्ति हाथ, पैर व मुुंह अच्छे से धोकर ही घर में प्रवेश करता था। लेकिन आज के आधुनिक समाज में कन्क्रीट के जंगल तैयार हो रहे हैं। ऊंची इमारतें की वजह से धूप और शुद्ध हवा की बहुत कम गुंजाइश बची है। आधुनिक जीवनशैली का अनुसरण कर लोग जूते चप्पल पहन कर ही भोजन आदि करने बैठ जाते हैं। हाथ धोने की जगह टिशू का प्रयोग करते हैं। ऐसे में इस तरह की आदतें व्यक्ति को बीमार बनाने के लिए काफी हैं।

यज्ञ-हवन से होती शुद्धि
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शहरों में बढ़ती आबादी के कारण, जहां एक ओर मोटर गाड़ियों की संख्या बढ़ रही है, वहीं तेजी से पेड़ों को काटा जा रहा है। इससे वायु प्रदूषण की दर, साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। जबकि हमारी परंपरा में दैनिक यज्ञ को अत्यधिक महत्व दिया गया है। हवन में आहुति देने के लिए जिस हवन सामग्री का प्रयोग होता है उसमें गुग्गुल, लोबान, कपूर आदि का सम्मिश्रण रहता है जो वातावरण को शुद्ध करने और उसमें उपस्थित हानिकारक कीटाणुओं एवं जीवाणुओं को नष्ट करने में सहायक सिद्ध होता है। पूजा-अर्चना के समय नियमित रूप से घी का दीपक जलाना एवं आरती करना धार्मिक क्रिया के साथ ही वैज्ञानिक तथ्यों की पुष्टि भी करती है। यह प्रक्रिया भी हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने मंे सहायक होती है। सनातन धर्म में प्रातः एवं सायंकाल मंदिरों तथा घरों में घण्टे और शंख बजाने की परम्परा रही है। ये ध्वनियां वातावरण में उपस्थित अनेकानेक विषाणुओं को खत्म करने में सहायक सिद्ध होती हैं।
रोग प्रतिरोधक क्षमता को जगाने की जरूरत
आज कोरोना वायरस के संक्रमण से लोग भयाक्रांत हैं। पाश्चात्य जीवनशैली से खोखले हो चुके मनुष्य शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता क्षीण सी हो गयी है। भारतीय संस्कृति को भूलकर लोग आधुनिक बनने की होड़ में लगे हुए हैं। जबकि हमारे यहां सूर्योदय पूर्व जागरण के पश्चात स्नान कर, उदय होते सूर्य को जल देने का नियम था। उदित होते सूर्य की किरणों का शरीर पर पड़ना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होता है। मशीनी जीवनशैली को जीने वाले ज्यादातर लोग या तो सुबह देर से उठते हैं या फिर उठकर योग-व्यायाम करने की अपेक्षा जिमखाना जाना अधिक पसन्द करते हैं। प्रातःकाल खुले वातावरण में बैठ कर योग-व्यायाम एवं ध्यान करने से शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा की शुद्धि होती है। व्यक्ति स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। सकारात्मकता का अनुभव करता है। बन्द जिमखानों में एक ही मशीन पर तमाम लोग पसीना बहाते हैं और अशुद्ध हवा का सेवन करते हैं। इससे कई तरह की बीमारियों और संक्रमण का खतरा पैदा हो जाता है। पश्चिम की ये नकल कितनी नुकसानदायक है ये समझना बहुत आवश्यक है।

वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक: आदि शंकराचार्य

आद्य शंकराचार्य जयंती- वैदिक धर्म के पुनरुद्धारक:

आदि शंकराचार्य का आगमन ऐसे समय हुआ, जब विदेशी आक्रांताओं के हमलों और षड्यंत्रों के कारण सनातन संस्कृति अपना ओज खो रही थी। ऐसे में उन्होंने न केवल वैदिक धर्म-संस्कृति की रक्षा की, बल्कि राष्ट्रीय भावना को मुखरित और जाग्रत करने के लिए चार धामों की स्थापना भी की

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आदि शंकराचार्य का आगमन उस समय हुआ, जब विदेशी आक्रांताओं के षड्यंत्रों के कारण सनातन धर्म-संस्कृति खतरे में थी। 32 वर्ष की अल्पायु में वैदिक चिंतन और संस्कृति की रक्षा के लिए उन्होंने जो प्रयास किए उससे न केवल देश में राष्ट्रीय भावना मुखरित व जाग्रत हुई, बल्कि उन्होंने देश के चार कोनों में चार धामों– ब्रदीनाथ (उत्तर), रामेश्वरम (दक्षिण), जगन्नाथपुरी (पूरब) और द्वारिका (पश्चिम) की स्थापना कर देश में सांस्कृतिक जागरण का अपना दायित्व निभाया। साथ ही, राष्ट्रवाद की भावना को भी बलवती बनाया। इन धामों की स्थापना के पीछे उनका उद्देश्य राष्ट्र और संस्कृति को बचाना था।
शंकराचार्य का जन्म करीब 1200 साल पहले केरल के एक ब्राह्मण परिवार में बैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। उनके पिता शिवगुरु तैतरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। महज तीन-चार वर्ष की आयु में ही शंकराचार्य की बौद्धिक प्रतिभा दिखने लगी थी। सात वर्ष की आयु में वह कई शास्त्रों के ज्ञाता बन गए। उस युग के ख्यातिनाम ज्योतिषियों ने कुंडली देख कर बताया कि बालक अत्यंत दुर्लभ महापुरुष होगा, लेकिन इसकी आयु बहुत कम होगी। यह सुनकर शंकर की मां चितिंत हो गईं। एक ओर बालक शंकर अपना जीवन देश को अर्पित करने को तत्‍पर थे तो दूसरी ओर मां बेटे को अपने से अलग नहीं होने देना चाहती थी। बालक शंकर ने युक्ति से काम लिया। एक दिन वह मां के साथ नदी स्नान करने गए। तैरते-तैरते वह बीच नदी में पहुंच गए और चिल्लाने लगे,‘‘मां, मगरमच्छ ने मुझे पकड़ लिया है। अब केवल भगवान शंकर ही मेरी रक्षा कर सकते हैं। यदि तू मुझे उनको अर्पित कर दे तो मेरी जान बच सकती है।’’ मां के पास बेटे की बात मानने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। इस तरह, मात्र आठ वर्ष में घर त्याग कर वह मीलों का कष्टकारी सफर तय कर वेदांत के प्रकांड विद्वान महायोगी गोविंदपाद के पास पहुंचे। उनसे गुरु दीक्षा व संन्यास ग्रहण किया और दो वर्ष में ही अपनी शिक्षा पूरी कर ली।
इसके बाद गुरु आज्ञा से अपने वयोवृद्ध गुरु भाइयों के साथ काशी में जब उन्होंने वेदांत के गूढ़ रहस्यों पर प्रवचन दिया तो वहां हलचल मच गई। उन्होंने बड़े-बड़े पंडितों की शंकाओं का समाधान कर वेदांत-मत का प्रतिपादन किया। उस समय उनकी आयु 11 वर्ष थी। काशी प्रवास के दौरान ही उनका छुआछूत पर अहंकार भी टूटा था। हुआ यूं कि एक दिन शंकराचार्य प्रात:काल नदी में स्नान कर लौट रहे थे कि एक चांडाल से छू गए। चांडाल पर अपवित्र करने का आरोप लगाते हुए उसे भला-बुरा कहने लगे। इस पर चांडाल ने हंसते हुए कहा, ‘‘महाराज! संन्यास लेकर संत तो बन गए। वेद पढ़कर पंडित भी बन गए, पर तुच्छ देह का अभिमान नहीं गया। सबके शरीर में एक ही आत्मा का निवास है, इस सत्य को जाने बिना आपका संन्यास दिखावा है।’’ उसकी बातों ने शंकाराचार्य की आंखें खोल दीं।
शंकराचार्य के समय में महात्मा बुद्ध का दिव्य तत्व दर्शन अपना मूल स्वरूप खो चुका था। सीमाओं पर म्लेच्छों की दृष्टि थी। ऐसे संक्रमण काल में देश में विलुप्त वैदिक संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा करना उनकी राष्ट्र निर्माण योजना का एक महत्वपूर्ण अंग था। उन्होंने देशभर में वैदिक धर्म के प्रचार के लिए चिद्विलास, विष्णुगुप्त, हस्तामलक, समित पाणि, ज्ञानवृन्द, भानु गर्भिक, बुद्धि विरंचि, त्रोटकाचार्य, पद्मनाम, शुद्धकीर्ति, मंडन मिश्र, कृष्ण दर्शन आदि विद्वानों को संगठित कर उनके सहयोग से वेद धर्मानुयायियों की एक विशाल धर्म सेना बनाई और पूरे भारत में धर्म सुधार किया। इससे पूरे देश में फिर से वैदिक धर्म का शंखनाद गूंजने लगा। भगवान बुद्ध ने धर्म में आए गतिरोध व कुरीतियों को दूर करने के लिए बौद्ध मत की स्थापना की थी, लेकिन बौद्ध मतावलंबी ही जब हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने लगे और बौद्ध मठ वामाचार के केंद्र बनने लगे तो शंकराचार्य ने पूरे देश में पदयात्रा कर वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। बौद्धों को शास्त्रार्थ में परास्त करने के बाद उन्होंने वैदिक धर्म के उत्कर्ष के लिए पाशुपत, शाक्त, तांत्रिक, शैव, माहेश्वर, वैष्णव आदि संप्रदायों के मठाधीशों को चुनौती दी, जिन्होंने धार्मिक कुरीतियों का प्रचार कर लोगों को कुमार्गी बना दिया था। उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैतरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद के भाष्य लिखकर नई विचार क्रांति को जन्म दिया। मंडन मिश्र और कुमारिलभट जैसे समकालीन बौद्ध विद्वानों से धर्म की उपादेयता पर शास्त्रार्थ कर वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। इसके बाद उन्होंने जगन्नाथपुरी, उज्जयिनी, द्वारिका, कश्मीर, नेपाल, बल्ख, कांबोज तक पदयात्रा की और वैदिक धर्म का जयघोष किया।
बौद्ध धर्म के प्रकांड विद्वान आचार्य मंडन मिश्र के साथ भी उनका शास्त्रार्थ हुआ। शर्त थी कि शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र पराजित हुए तो उन्हें संन्यास ग्रहण करना पड़ेगा, जबकि शंकराचार्य पराजित होते तो उन्हें गृहस्थ जीवन स्वीकार करना था। शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती ने निभाई। एक रोचक घटनाक्रम में शंकराचार्य विजयी हुए और मंडन मिश्र को संन्यास लेना पड़ा। इस तरह शंकराचार्य ने वैदिक ज्ञान की सर्वोच्चता साबित की। देश भ्रमण के दौरान जब वह बद्रीनाथ धाम पहुंचे तो उन्हें मूर्तिविहीन देवालय की दुर्दशा का पता चला। बौद्धों ने नारद कुंड में मूर्ति फेंक दी थी। उन्होंने स्वयं नारद कुंड से देव प्रतिमा निकाली, पर विग्रह का एक पांव खंडित था। पंडितों ने खंडित विग्रह की स्थापना का विरोध किया, पर शंकराचार्य के तर्कों से वे निरुत्तर हो गए। अंतत: मूर्ति जोड़कर पुन: उसकी प्रतिष्ठा की गई। जीवन के अंत समय तक शंकराचार्य धर्म को प्रतिष्ठित करने में लगे रहे और अल्पायु में जगद्गुरु की पदवी पााई।

                        ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या के प्रतिपादक

अद्वैत वेदांत के प्रणेता आदि शंकराचार्य का चिंतन आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित है। इसके अनुसार, परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण, दोनों ही स्वरूपों में विद्यमान रहता है। उन्होंने वेदों को ईश्वर की वाणी कहा और पूरे देश में उसका प्रचार-प्रसार किया। उनके अनुसार सत्य वही है जो जैसा है वैसा ही दिखे। इसी आधार पर उन्होंने ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या बताया। उनका कहना था कि संसार में सब कुछ बदलता रहता है। नहीं बदलता है तो केवल आत्मा और ब्रह्म। उन्होंने पांच अद्भुत सूत्र दिए- सेवा, साधना, सत्कर्म, स्वाध्याय और परमात्मा के प्रति समर्पण भाव। उन्होंने कहा कि जन्म से हर आदमी शूद्र है, उसकी जाति का निर्धारण कर्मानुसार होता है।

             शंकराचार्य मंदिर: कला-संस्कृति की अनुपम धरोहर

जम्मू-कश्मीर स्थित भव्य शंकराचार्य मंदिर कला-संस्कृति व पुरातात्विक दृष्टि से भी अति विशिष्ट है। श्रीनगर में डल झील के पास पहाड़ी पर स्थित हजारों साल पुराने इस अष्टकोणीय मंदिर को प्रस्तर वास्तु शिल्प का नायाब नमूना माना जाता है। इस शिव मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा कश्मीर के राजा गोपादित्य ने ई.पू. 371 में कराई थी और इसकी देखरेख व पूजापाठ का जिम्मा स्थानीय अग्रवर्ती ब्राह्मणों को सौंपा था। शुरू में इस मंदिर का नाम गोपादारी मंदिर था जो बाद में शंकराचार्य मंदिर हो गया। कहते हैं कि पदयात्रा के क्रम में शंकराचार्य कश्मीर भी गए थे और श्रीनगर के इस पहाड़ी शिव मंदिर में भगवान शिव की आराधना की थी। उस समय अग्रवर्ती ब्राह्मणों से उनका शास्त्रार्थ भी हुआ था। शास्त्रार्थ में जीतने के बाद अग्रवर्ती ब्राह्मणों ने पारितोषिक के तौर पर मंदिर ही शंकराचार्य को समर्पित कर दिया।