Monday, January 17, 2022

जिन उद्यमों के प्राण-प्रणेता थे श्यामा प्रसाद जी, वहां हुए विस्मृत

भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक चैतन्य यशस्वी व्यक्तित्वों का प्रकाट्य हुआ है। इन्हीं कीर्तिवान महान पुरुषों में भारत केसरी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम सश्रद्ध लिया जाता है। इसके मुख्य कारण थे 'भारत में राजनीतिक संकट के दौरान उनका उदय और उनकी देशहितैषी प्रभावशाली भूमिका।'

भारतीय आर्ष परंपरा में एक शाश्वत तथ्य स्थापित है-'कीर्तिर्यस्य स जीवति' अर्थात सत्कृत्यों से कीर्तिवान व्यक्ति चिरंजीवी होते हैं। ऐसे कीर्तिवान व्यक्ति अपनी विलक्षणता से सृजनमंडल को जीवंत और ऊर्जान्वित भी करते हैं। औरों के लिये जीवन जीना ही उनके जीवन का सुंदर लक्ष्य और उपदेश होता है। निस्संदेह भारतवर्ष का इतिहास गौरवमयी और स्वाभिमानी परंपरा का इतिहास है, परंतु इसे जगजाहिर होने से रोकने के लिए षड्यंत्र रचा गया और सनातनी सांस्कृतिक विरासत को विरूपित करने के निरंतर प्रयास किए गए। हमारे मेलबंधन को हर संभव मिटाने के परोक्ष रूप में कुचक्र चलाया गया। हमें छिन्न-भिन्न किया जाता रहा, लेकिन यह मानना होगा कि कोई न कोई शक्ति है, जो हमारी अक्षुण्ण हिंदू संस्कृति की रक्षा करती आई है। गंभीरता से चिंतन मनन करने पर वह शक्ति 'एकत्वमयी चेतना' के रूप में परिलक्षित होती है। 

भारतीय इतिहास में ऐसे अनेक चैतन्य यशस्वी व्यक्तित्वों का प्रकाट्य हुआ है। इन्हीं कीर्तिवान महान पुरुषों में भारत केसरी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम सश्रद्ध लिया जाता है। इसके मुख्य कारण थे 'भारत में राजनीतिक संकट के दौरान उनका उदय और उनकी देशहितैषी प्रभावशाली भूमिका।' भारत 15 अगस्त 1947 को स्वाधीन हुआ। देश की आजादी के बाद तत्कालीन कांग्रेस नेता 'पंडित जवाहरलाल नेहरू' प्रधानमंत्री बने और देश चलाने के लिए अनुवर्ती राष्ट्रीय मंत्रिमंडल का गठन किया। कैबिनेट की इस बैठक में उन्होंने कुछ प्रतिपक्ष के नेताओं से मंत्रालय संभालने का अनुरोध किया, उनमें से एक डॉ. श्यामाप्रसाद भी थे। इन तमाम गतिविधियों को सफल बनाने में जवाहर लाल नेहरू ने विशेष रूप से महात्मा गांधी की सलाह ली थी। तत्पश्चात इस कैबिनेट में पंडितजी ने श्यामाप्रसाद जी को 'उद्योग और आपूर्ति मंत्री' नियुक्त किया। भारत कई सदियों से मुगलों व ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन था। सदियों के परतांत्रिक कारणों से चतुर्दिक 'विकास की अवहेलना' हुई थी। भारतीय उद्योग धंधों के आधारभूत ढांचे शिथिल पड़ चुके थे। औद्योगिक प्रतिष्ठानों में गिने चुने प्रतिष्ठान बचे हुए थे, जैसे महाराष्ट्र के कुछ कपड़े उद्योग, जमशेदपुर व बर्नपुर के टाटा स्टील और इंडियन आयरन तथा बंगाल के जूट उद्योग। 

कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि 'केन्द्रीय औद्योगिक मंत्रालय के प्रति यथोचित तत्परता एवं बहुआयामी सोच में नगण्यता थी।' मूलतः कहा जाय तो इच्छाशक्ति में कमी थी। श्यामा प्रसाद जी ने उन सभी रुग्ण मान्यताओं व तौर तरीकों को बदल दिया और उन्होंने सबसे पहले उद्योग और आपूर्ति विभाग का कार्यभार संभालने के साथ-साथ बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया। प्रबंधनगत कौशल एवं योग्यता में संपन्न श्यामा प्रसाद जी का मानना ​​था कि 'अक्षय विकास के लिए बुनियादी ढांचों का होना पहली आवश्यकता है। इसके आधार पर ही स्वावलंबन-मूलक विकास का ज्वार लाया जा सकता है।' आधारभूत संरचनाओं का सृजन करते हुए उन्होंने सबसे पहले परिवहन व्यवस्था को सुदृढ़ करने का निश्चय किया। तत्कालीन भारत में रेलवे की लंबाई केवल 54000 किमी थी। स्टीम इंजन की मदद से भारत में ट्रेनें चलती थीं। ऐसे में इंजन विदेशों में बनाए जाते थे। स्टीम इंजन मूल रूप से कनाडा, इंग्लैंड व अमेरिका से आयात किए जाते थे। इन इंजनों के रखरखाव और मरम्मत भी उन्हीं विदेशी कंपनियों द्वारा किया जाता था। इन सभी मामलों में क्रमशः विदेशी निर्भरता को कम करते हुए उसे समाप्त करने के दिशा में श्यामा प्रसाद जी ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। भारत में ही 'लोकोमोटिव विनिर्माण' की प्रक्रिया के लिए योजना बनाई गई। वे किसी भी लोकहितकारी योजना के निरूपण में सर्वदा तत्पर रहा करते थे। उन्होंने सर्वप्रथम स्टीम लोकोमोटिव उद्योग की स्थापना के लिए पूर्वी रेलवे के अंतर्गत आने वाले मिहिजाम क्षेत्र का चयन किया था, जो तत्कालीन बिहार राज्य का हिस्सा था। श्यामा प्रसाद जी पश्चिम बंगाल में भी एक कारखाना लगाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बिहार सरकार से उद्योग हेतु आवश्यक जमीन मांगी। सफल भी रहे। उसके बाद उसे पश्चिम बंगाल में शामिल करवा लिया। इस तरह अत्यंत सामंजस्यपूर्ण ढंग से दोनों राज्यों के निकटवर्ती स्थान का चयन किया गया। संतुलित विकास और संसाधनों की उपलब्धता के आलोक में उन्होंने सुंदर 'लोक प्रशासकीय दक्षता' को दर्शाया। 1948 के जनवरी महीने में लोकोमोटिव कारखाने की आधारशिला रखी गई। श्यामा प्रसाद जी ने इस 'आधारशिला स्थापन कार्य' को अत्यंत आग्रहपूर्वक चित्तरंजन दास की धर्मपत्नी बसंती देवी द्वारा संपन्न करवाया।

26 जनवरी 1950 भारत के इतिहास में एक यादगार दिन है। इस दिन लोकतान्त्रिक प्रणाली के साथ 'भारत का पवित्र संविधान' लागू किया गया। श्यामा प्रसाद जी की अभूतपूर्व उद्यम व दूरदर्शिता के फलस्वरूप इसी दिन ही चित्तरंजन के लोकोमोटिव कारखाने से पहला इंजन बनाया गया और राष्ट्र की सेवा में समर्पित किया गया। उस दिन भारतीय रेलवे में एक नई संपदा जोड़ी गई थी। 'भारतीय रेलवे' रेल इंजन निर्माण और रखरखाव में आत्मनिर्भर हो गई। श्यामा प्रसाद जी के 'सपनों की परियोजना' न केवल भारत में ही बल्कि, विदेशों में भी इंजन बनाने में सिद्धहस्त और नामदार साबित हुई, लेकिन आश्चर्य है श्यामा प्रसाद जी जिन उद्यमों व प्रकल्पों के प्राण-प्रणेता हैं, वहां पर वे विस्मृत-से हो गये हैं। उनकी यादें मद्धिम हो गई हैं। उनके द्वारा स्थापित 'उद्यमों व योजनाओं के शहर' उनकी उपलब्धियों के प्रति संजीदा नहीं दिखते हैं। डॉ. श्यामा प्रसाद जी की स्मृति में न तो कोई समुचित झलक या स्मारक संजोया गया है और न ही नामकरण की गई है। यह विस्मृति सोची समझी और दुर्भाग्यपूर्ण लगती है।  चितरंजन लोकोमोटिव के अलावा चित्तरंजन के पास अवस्थित 'दामोदर घाटी निगम' के साथ 'मैथन बांध परियोजना' भी बनाई गई थी और इसे श्यामा प्रसाद जी के मातहत (केंद्रीय मंत्री रहते हुए) परिकल्पित व सफल रूपायन भी किया गया था। उन्होंने अनेक बार इन क्षेत्रों में प्रवास किया, लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों व मंशा के प्रभाव से उनकी यादें सिमट कर रह गई हैं। उनके सम्मान में न तो समुचित स्मृति-चिह्न दिखते हैं और न कोई वैसा यादगार ही दिखता है। यह एक बड़ा सवाल है यह ऐतिहासिक भूल है या राष्ट्रीय भूल ? इसे सुधारेगा कौन?

राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती, फिरोजपुर घटना के निहितार्थ

विगत 5 जनवरी को पंजाब के फिरोजपुर जिले में योजनाबद्ध तरीके से प्रधानमंत्री की सुरक्षा को खतरे में डालने की घटना ने यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय राजनीति में ऐसे तत्व प्रभावी रूप से मौजूद हैं, जो राजनीतिक लाभ के लिए देश-द्रोही शक्तियों से हाथ मिलाने से नहीं सकुचाते हैं।


भारतीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री का पद संवैधानिक मर्यादा के साथ-साथ राष्ट्रीय अस्मिता का भी प्रतीक होता है। विगत 5 जनवरी को पंजाब के फिरोजपुर जिले में योजनाबद्ध तरीके से प्रधानमंत्री की सुरक्षा को खतरे में डालने की घटना ने यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय राजनीति में ऐसे तत्व प्रभावी रूप से मौजूद हैं, जो राजनीतिक लाभ के लिए देश-द्रोही शक्तियों से हाथ मिलाने से नहीं सकुचाते हैं। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के समय और अब वापस लिए जा चुके कृषि कानूनों के विरोध के समय भी एक ऐसी दुरभिसंधि के संकेत मिले थे, जिसमें राजनीति की मुख्य-धारा के तत्व भारत के विघटन की आकांक्षा रखने वाली शक्तियां एक साथ दिखीं, लेकिन फिरोजपुर की घटना ने मर्यादा की अंतिम सीमाओं को भी लांघ दिया। यह पूरा घटनाक्रम भारतीय समाज के लिए अनेक प्रश्नों को सामने लाता है।

 

इस घटना के बाद कुछ विकृत मानसिकता के लोगों द्वारा जश्न मनाने और आनंद लेने जैसे स्पष्ट संकेत दिए गये। ऐसा करने वालों में देश में सबसे लम्बे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी के नेतागण, कुछ तथाकथित बौद्धिक माने जाने वाले लोग, सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट एवं कुछ पत्रकार भी शामिल थे। अब सबसे पहला प्रश्न तो यही उठता है कि इन सभी लोगों का मंतव्य क्या था? और दूसरा प्रश्न यह है कि इन सभी अलग-अलग क्षेत्र से संबंध रखने वाले लोगों का एक जैसा मंतव्य कैसे हो सकता है? जिस स्थान पर प्रधानमंत्री के वहां को एक पुल पर अचानक रुकना पड़ा, वह स्थान पाकिस्तान की सीमा से बहुत अधिक दूर नहीं था। सड़क मार्ग से विमानतल की ओर जाते प्रधानमंत्री के मार्ग की जानकारी प्रदर्शनकारियों के पास होना, अचानक पंजाब के मुख्यमंत्री का बीमार होकर घर बैठ जाना, स्थानीय प्रशासन और पुलिस का प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर असहयोगी रवैया अपनाना आदि संकेत इतना तो प्रमाणित करते हैं कि यह सब पूर्व नियोजित था। ठीक उसी प्रकार जैसे 26 जनवरी को लाल किले पर तिरंगे का अपमान पूर्व नियोजित था और उसी तरह से जैसे शाहीन बाग पूर्व नियोजित था। जो प्रश्न उठे हैं उनका उत्तर ढूढ़ने के लिए हमको देश के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टि डालनी होगी। भारत इस समय विकास के मोर्चे पर एक सकारात्मक लहर के दौर से गुज़र रहा है। अनुच्छेद 370 जैसे अनावश्यक कानून के हटने से और सर्वसम्मति से अयोध्या में राममंदिर का निर्माण होने से भारतीय समाज का आत्म-विश्वास भी ऊंचा है। कोरोना जैसी अभूतपूर्व चुनौती से उबर कर देश आर्थिक विकास के लिए पुख्ता-अधोसंरचना तैयार कर रहा है। सामरिक मोर्चे पर देखें तो पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक करना, दोक्लम तथा गलवान में चीन पर भारी पड़ना तथा अनेक लोक-कल्याणकारी योजनाओं से देश के वंचित तबके तक लाभ पहुंचाना आदि राष्ट्रीय शक्ति के जागरण कि तरफ ले जा रहा है।

 

भारत का एक सबल राष्ट्र के रूप में बढ़ना विश्व-समुदाय के लिए तो हर्ष का विषय होता है क्योंकि भारत का उत्कर्ष सबके लिए समृद्धि और कल्याण लाता है, परन्तु दुनिया पर बलपूर्वक तानाशाही करने का सपना पालने वाली शक्तियां भारत के मजबूत होने से विचलित होने लगती हैं। अमेरिका और सोवियत रूस ने पिछले 100 वर्षों में भारत के भीतरी मामलों में अनेक अवसरों पर योजनाबद्ध हस्तक्षेप करके हमारी राष्ट्रवादी शक्तियों को कमज़ोर किया है। इन हस्तक्षेपों के पीछे पूंजीवादी लाभ, सामरिक बढ़त और विचारधारा के आधार पर कब्ज़ा करने जैसे कारण रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से चीन जैसी निरंकुश विस्तारवादी शक्ति भी भारत में आतंरिक विप्लव के अनेक षड़यंत्र रच रही है। अपने निर्माण के बाद से ही भारत विरोध के ईंधन से चलने वाला देश पाकिस्तान तो भारत में अनेक प्रकार की अस्थिरता लाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहता है।  भारत एक पारदर्शी लोकतंत्र और बहुलतावाद की संस्कृति का राष्ट्र होने के कारण विदेशी भूमि पर रचे गये प्रपंचों का शिकार होता रहा है। विशेष रूप से भारत के सीमावर्ती राज्यों को घुसपैठ, विदेशी धन, प्रोपगंडा आदि इत्यादि के प्रयोगों से सदैव अस्थिर रखने का प्रयास होता है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, पूर्वोत्तर में नागालैंड एवं मणिपुर जैसे राज्य हथियारबंद आतंकवाद का शिकार रहे हैं। आज जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में आतंकवाद पर लगाम लगी है। संभवतः राष्ट्र-विरोधी शक्तियों का सारा ध्यान पंजाब में समस्या फैला कर सम्पूर्ण भारत को तंग करने पर चला गया है।

  

हमारा पंजाब 1980 के दशक में खालिस्तानी आतंकवाद से बुरी तरह त्रस्त था। यह खालिस्तानी अलगाववाद भी भारत में सत्ता कि राजनीति में मदांध लोगों द्वारा पाला पोसा गया था, हालांकि इसका बीज सीमा पार से पाकिस्तान ने बोया था। खालिस्तान कि मांग उससे राजनीतिक लाभ कमाने वाले नेताओं के लिए भस्मासुर साबित हुई। इसी क्रम में भारत ने अपनी सम्मानित प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कि दुर्भाग्यपूर्ण हत्या भी देखी। पांच जनवरी का प्रकरण देश की प्रतिष्ठा को वैश्विक जगत में धूमिल करने वाला है। यह प्रकरण देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती का पूर्वसूचक भी है। यह इसलिए भी चिंतनीय है की पूर्व में हम इसी प्रकार की आतंकी और अलगाववादी घटनाओं में अपने दो प्रधानमंत्री खो चुके है। आज भले ही कांग्रेस के लोग भी इस राष्ट्रविरोधी कृत्य में खुशी मना रहे होंगे, परंतु उनको यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने इस आग में अपने पार्टी के कई नेताओं को झुलसते देखा है। पंजाब में आतंक के विनाश के लिए कार्य करने के लिए ख्याति कमाने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार बेअंत सिंह को भी देश ने खोया है। देश को यह समझना पड़ेगा कि पंजाब-केन्द्रित यह सब घटनाक्रम सामान्य नहीं है, इसके निहितार्थ को देखना और उसको स्वीकार करना आवश्यक है। यह सब एक दीर्घकाल से चली आ रही देश तोड़ने के षडयंत्र का हिस्सा है। पंजाब देश के लिए आर्थिक, राजनीतिक, सुरक्षा, रणनीति तथा पंथिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। अरबी और मध्य-एशियाई आक्रान्ताओं की बर्बरता हो, अंग्रेजी शासन का अत्याचार हो या भारत विभाजन का दंश हो अथवा स्वाधीनता के बाद लगातार विदेशी ताकतों का षडयंत्र हो, सब पंजाब को ही निशाना बनते रहे हैं। पंजाब अब एक बार फिर से मुखर रूप से राष्ट्र विरोधी तत्वों के लक्ष्य पर आ गया है।


गत 5 दशक से पंजाब में आतंकी, अलगाववादी, खालिस्तानी के साथ उग्र-वामपंथी, नक्सली तत्व एवं नशे का व्यापार करने वाले तत्व सभी मिलकर पंजाब को अशांत बनाने में जुटे हुए हैं। रिफ्रेंडम २०२० जैसा अलगाववादी एजेंडा हो या एक बार फिर भिंडरावाले के नाम को प्रचलित करना हो। यह सारा काम विदेशी पैसे और विदेशी साजिश के दम पर हो रहा है। किसान आंदोलन की आड़ में विदेशी फंडिंग कि अनेक रिपोर्ट सामने आयी थी। देश विरोधी सोच को पोषित करते हुए खालिस्तान बनाने कि मुहिम पूरे पंजाब और सिख समुदाय को बदनाम करने का षडयंत्र कर रही है। इसमें वे सारे लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शामिल हैं, जो प्रधानमंत्री की सुरक्षा के खतरे में पड़ने पर जश्न मानते हैं। कुछ राजनीतिक दल और उनके नेता सत्ता प्राप्ति के लिए देश-विरोधी शक्तियों से हाथ मिला चुके हैं। वहीं, मीडिया और सिविल सोसाइटी में भी उन्होंने एक ऐसे वर्ग को तैयार कर लिया है, जो अपने निजी हित के लिए देश-हित को नुकसान पंहुचा रहा है। इन सबका मंतव्य देश को आघात पहुंचाकर राजनीतिक लाभ कमाना है। पंजाब की जनता विशेषकर सिख समाज को इन सब षड्यंत्रों को और इसके दूरगामी परिणाम को समझना पड़ेगा और इसके प्रतिकार के लिए आगे आना पड़ेगा, क्योंकि यह किसी भी प्रकार से सिख पंथ, पंजाब, लोकतंत्र या राष्ट्र के हित में नहीं है। इस पंजाब कि महान भूमि ने समाज को जोड़ने वाली सिखी परंपरा को जन्म दिया। वेदों में इस  भूमि को ब्रह्मवर्त कहा गया है। यहां भिंडरावाला के मंसूबों के लिए कोई स्थान नहीं है। विदेशी प्रोपगंडा और विदेशी धन से तैयार हुए मुठ्ठी भर अलगाववादी कुछ समय तक अशांति ज़रूर फैला सकते हैं, लेकिन वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते। 


आज पंजाब सहित पूरे देश के राष्ट्र-भक्त नागरिकों को आगे आकर संगठित होकर खालिस्तानी अलगाववाद कि साजिशों को नाकाम करना होगा। सज्जन शक्तियों का संगठित प्रयास ही देश पर आये इस प्रकार के खतरों से लड़ने का हथियार है। सज्जन शक्तियों का संगठन करने के लिए हमे दशम गुरु गोबिंद सिंह जी के दिखाए रास्ते पर चलना होगा। हमें उन सनातन मूल्यों को याद करना होगा, जिनके लिए गुरु गोबिंद सिंह जी औरंगजेब के खिलाफ लड़े। हमें भारतीय समाज की रक्षा और राष्ट्र की एकता के लिए अपने वंश का बलिदान करने वाले योद्धा संत गुरु गोबिंद सिंह जी की शिक्षाओं को ध्यान में रखते हुए पूर्ण मनोयोग से अपना योगदान देना चाहिए।