Friday, April 2, 2021

वैदिक सूर्योपासना का वैश्विक प्रसार :

आज भी ऐसे अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं जो सिद्ध करते हैं कि पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों तक में सूर्योपासना का चलन था:



विश्व में सूर्य की उत्तरायण संक्रान्ति के प्रसार पर चर्चा के उपरान्त इस अंक में वैदिक देवता सूर्य अर्थात् मित्र के वैश्विक रूपांकन व उपासना परम्पराओं की समीक्षा की जा रही है। ईसा व इस्लाम पूर्व काल की प्राचीन सभ्यताओं में वैदिक देवता सूर्य अर्थात् मित्र या मिस्र की उपासना के पुरावशेष विश्व के सभी भागों में प्रचुरता में उपलब्ध हैं।

प्राचीन मेसोपोटामिया में इन्द्र, वरुण, अग्नि, सूर्य की पूजा की परम्परा: सिन्धुघाटी की सभ्यता के पश्चिम में ईराक, मिस्र, सीरिया व टर्की (तुर्की) आदि प्राचीन मेसोपोटामिया के भाग रहे हैं। इस क्षेत्र में 6000 वर्ष ईसा पूर्व काल में वैदिक आर्यों की कई सभ्यताएं रही हैं। ईसापूर्व 1400-1900 के बीच वैदिक आर्यों  के दो ऐतिहासिक राज्य हित्ती (हिट्टाइट) व मितान्नी रहे हैं। इनके बीच ईसा पूर्व 1380 अर्थात् 3400 वर्ष पूर्व हुए युद्घ के बाद हित्ती व मितान्नी राजाओं ‘सिपिलियमियम’ और ‘शत्तिवाज’ के बीच 4000 वर्ष पूर्व हुई सन्धि में वैदिक देवताओं मित्र अर्थात् सूर्य, वरुण, इन्द्र, नसत्य अर्थात् अश्विनी कुमारों और अग्नि के आवाहन हैं। जर्नल आॅफ इण्डो-यूरोपियन स्टडीज के 2010 के एक अंक में प्रकाशित लेख ‘अबाउट दि मित्तानी आर्यन गॉड्स (1-2:26.40 पृष्ठ)’ में वैदिक देवताओं के नामों और वैदिक अंकों एक, पांच, सात आदि के विवरण हैं।

कई सहस्रब्दियों के प्राचीन मितान्नी राजाओं के हिन्दू नाम यथा वृहदाश्व, प्रीयाश्व, प्रियामेघ, तुषारार्थ (दशरथ का अपभ्रंश), सुबन्धु आदि और रंगों के भी संस्कृत नाम बभ्रु पिंगल आदि एवं अयनान्त संक्रान्तियों के पर्वों के सन्दर्भ 4000 वर्ष प्राचीन शिलालेखों में प्रचुरता में मिल रहे हैं। (देखें, हेडलबर्ग-जर्मनी के मनफ्रेड मयर्होफर के पुरातात्विक अध्ययन, प्राचीन मेसापोटामिया वर्तमान इराक, कुवैत, टर्की व सीरिया के क्षेत्रों से युक्त क्षेत्र) में 3500 से 4000 वर्ष प्राचीन मित्तानी साम्राज्य के भारतीय आर्यों के नाम युक्त राजाओं के शिलालेखों में एक की प्रति चित्र क्रमांक 1 में है। प्राचीन ईराकी ‘बेंबीलोन’ की सभ्यता में भी सूर्य पर प्रचुर साहित्य रहा है।

इजिप्ट में परमात्मा के रूप में सूर्य अर्थात् एटन या एटेन: भारत में जिस प्रकार सूर्य की मार्तण्ड, भास्कर आदि अनेक नामों से पूजा होती है, उसी प्रकार मिस्र अर्थात् इजिप्ट में सूर्य की ‘रे’ व एटन या एटेन आदि कई नामों से 3000 ईसा पूर्व से पूजा होती रही है। मिस्र के राजा अखेनाटोन, महारानी नेफेरतिति और उनकी तीन पुत्रियों को सूर्य से  आशीर्वाद की याचना करते हुए ईसा पूर्व मध्य 14वीं सदी अर्थात् ईसा के 1450 वर्ष पहले अर्थात् आज से 3470 वर्ष प्राचीन एक नक्काशीपूर्ण वेदिका में दिखाया गया है। (देखें, चित्र क्रमांक 2) इस वेदिका के चित्र जर्मनी में बर्लिन संग्रहालय फोटो मारबर्ग एवं न्यूयॉर्क के आर्ट रिसोर्स संग्रहालय में उपलब्ध हैं। सभी सूर्योपासक सम्प्रदायों में सूर्य को जीवन का आधार एवं सत्य व न्याय का पोषक और सभी प्रकार के ज्ञान का स्रोत माना जाता है। भारत की ही भांति प्रात:कालीन बाल सूर्य, मध्यान्ह कालीन पूर्ण प्रकाशमान सूर्य व अस्ताचलगामी सन्ध्याकालीन सूर्य के भिन्न-भिन्न नाम क्रमश: खेपेर, रे और एटुम रहे हैं। राजा अखेनाटोन के काल के शिलालेखों में सूर्य  को वैदिक साहित्य के अनुरूप पृथ्वी का नियामक बतलाया गया है। ईराक स्थित सुमेर व ईरान के एक भाग में अक्कोडियन रही प्राचीन सभ्यताओं में भी वेदों की भांति सूर्य शीर्ष देवताओं में है, जो रोग रहित बनाता है।

लेबनान में सूर्योपासना

पश्चिम एशिया स्थित इस्लामी देश लेबनान के मन्दिरों के नगर बालबेक की विगत कैलाश पर्वत के सन्दर्भ में चर्चा की जा चुकी है, जहां इस बालबेक नामक प्राचीन नगर का नाम ही सूर्य नगरी अर्थात् हीलियोपॉलिस रहा है।

चीन में सूर्योपासना

चीन के सिंक्यांग प्रान्त की ‘तिआन शान’ पहाड़ियों में हिमालयीन ऋषियों की 334 किजिल गुफाएं प्राचीन सिल्क मार्ग पर भारत, ईरान, रोम व चीन की प्राचीन सौर सभ्यताओं के मध्यवर्ती स्थित हैं, इनमें 100 से अधिक में बौद्घ युग के शैलचित्र हैं। इन गुफाओं के मन्दिरों की रेडियों कार्बन डेटिंग के अनुसार ये चौथी से सातवीं सदी के हैं। इनमें कई गुफाओं में खडेÞ बुद्ध के साथ सूर्य, चन्द्र, गरुड़, नाग, वायुदेव आदि के चित्र भी हैं। बौद्ध मत में बुद्ध को सूर्य- बन्धु मानने के कारण पालि भाषा में बुद्ध का एक विशेषण ‘आदिक्कबन्धु’ पाया जाता है जो संस्कृत शब्द आदित्य-बन्धु का ही पालि में भाषान्तर है। बौद्ध जातक ‘वेस्सान्तर जातक’ में मिस्र अर्थात् सूर्य को न्याय का सृजक बतलाया है। चौथी सदी में किजिल की इन प्राचीन गुफाओं में वैदिक देवताओं व रथारूढ़ सूर्य व बुद्ध का संयुक्त रूपांकन उस काल में बौद्ध व वैदिक संस्कृतियों में समन्वय की परम्परा का द्योतक है।

विश्व के सभी भागों में सूर्योपासना

विश्व के सभी भागों में इण्डोनेशिया सहित दक्षिण पूर्व एशिया, हमारे पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, तिब्बत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका व म्यांमार  के अतिरिक्त ईरान, ईराक, लेबनान, सीरिया व तुर्की, मिस्र अरब प्रायद्वीप में भी प्राचीन सूर्योपासना के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। यूरोपीय ग्रीको-रोमन क्षेत्र में 5वीं सदी पर्यन्त मित्र देवता का प्रसार रहा है। चीन, जापान, अंटार्कटिक, आॅस्ट्रेलिया और अमेरिकी महाद्वीपों सहित सर्वत्र सौर उपासना के प्रचुर पुरावशेष विद्यमान हैं

विकास की आस :

आज बंगाल के गरीब को विकास की आस है। वह विकास की राह में दीदी के अड़ंगा लगाने से भी वाकिफ है। इसीलिए वह खुलकर पूछ रहा है कि उसे आयुष्मान भारत के तहत मुफ्त इलाज की सुविधा क्यों नहीं मिली? किसान पूछ रहे हैं कि उन्हें किसान सम्मान निधि के हजारों रुपये क्यों नहीं मिले:


दीदी ( ममता बनर्जी ) कहती हैं कि ‘खेला होबे’ तो पश्चिम बंगाल की जनता कह रही है कि ‘खेला खत्म होबे, विकास होबे। विकास आरंभ होबे’। जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में चुनावी रैली को संबोधित करते हुए पश्चिम बंगाल का विकास होबे का नारा बुलंद किया, लाखों लोगों की भीड़ ने प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाते हुए विकास होबे का समर्थन किया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री जब मंच से केंद्र सरकार की पश्चिम बंगाल को दी गई विकास योजनाओं का जिक्र करते हैं तो लोग उनकी बात को गौर से सुनते हैं और जब वे आंकड़ों और तर्कों के साथ यह बताते हैं कि कैसे वामदलों के शासन में पश्चिम बंगाल विकास के मामले में पिछड़ा और ममता के राज में कैसे नौजवानों का राज्य से पलायन हुआ तो इसे सुन कर लोग गंभीर हो उठते हैं।


तथ्यों से तिलमिलाई तृणमूल

भाजपा का ‘विकास होबे’ नारा लोगों को इसलिए भी लुभा रहा है क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी सहित भाजपा के दूसरे नेता केंद्र सरकार के पश्चिम बंगाल के लिए किए गए विकास के कार्यों का ब्यौरा जनता के सामने रखते हुए यह भी बता रहे हैं कि ममता बनर्जी सरकार ने राज्य के लिए केंद्र सरकार की कौन-कौन सी विकास योजनाओं में अड़ंगा लगाया। लिहाजा आज बंगाल का गरीब पूछ रहा है कि उसे आयुष्मान भारत योजना के तहत मुफ्त इलाज की सुविधा का लाभ क्यों नहीं मिला? तो बंगाल का किसान पूछ रहा है कि उसे किसान सम्मान निधि के हजारों रुपये क्यों नहीं मिले। यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि केंद्र की इन दोनों योजनाओं को लेकर ममता सरकार ने उदासीन रवैया अपनाया। उसने केद्र की योजनाओं को लेकर इसलिए भी राजनीति की ताकि राज्य की जनता को मोदी सरकार की विकास और कल्याणकारी योजनाओं का पता न चले। सवाल उठता है क्या ममता सरकार की इस प्रकार की नकारात्मक राजनीति से पश्चिम बंगाल का भला हुआ?



असल में तृणमूल कांग्रेस और वामदल—कांग्रेस गठबंधन की तुलना में भाजपा के वादे और दावे इसलिए भी लोगों को लुभा रहे हैं क्योंकि पश्चिम बंगाल की जनता तृणमूल कांग्रेस, वामदल और कांग्रेस तीनों का ही शासन देख चुकी है जबकि भाजपा पहली बार राज्य में विकल्प के रूप में उभरी है। इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल सहित पूर्वी भारत के विकास को लेकर केंद्र की मोदी सरकार अपने कार्यों का दृष्टिकोण राज्य की जनता के सामने लगातार रखती रही है। मसलन, प्रधानमंत्री कहते हैं कि ‘बंगाल पहले जितना आगे था, अगर बीते दशकों में उसकी वह गति और बढ़ी होती, तो आज कहां से कहां पहुंच गया होता।’


पिछड़ता गया बंगाल

‘आजादी से पहले पूर्वी भारत के दो शहर कोलकाता और चट्टोग्राम (अब बांग्लादेश) न सिर्फ प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे, बल्कि इनके माध्यम से शेष भारत जुड़ा हुआ था। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के विभाजन के बाद जल मार्ग के बाधित होने से अगरतला और कोलकाता के बीच की दूरी 550 किमी से बढ़कर 1600 किमी हो गई। इस विभाजन से पूर्वोत्तर राज्यों का संपर्क टूट-सा गया था जो इस क्षेत्र की आर्थिक, राजनैतिक और स्थानीय पहचान से जुड़े संकट की एक बड़ी वजह था। आजादी के वक्त औद्योगिक क्षेत्र में बंगाल की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत थी जो अब 3.5 प्रतिशत है। रोजगार 27 प्रतिशत से 4 प्रतिशत तक पहुंच गया है। प्रति व्यक्ति आय 1960 में महाराष्ट्र की प्रति व्यक्ति आय से दोगुनी थी और अब महाराष्ट्र से आधी भी नहीं रह गई है। 1960 में बंगाल भारत के सबसे अमीर राज्यों में था पर आज बहुत नीचे चला गया है। एक जमाना था कि बंदरगाहों की आवाजाही 42 प्रतिशत थी और आज 10 प्रतिशत रह गई है। 1950 में देश की फार्मा इंडस्ट्री में इसका 70 प्रतिशत हिस्सा था जो अब 7 प्रतिशत रह गया है। बंगाल का जूट उद्योग महत्वपूर्ण था, आज बहुत सारी मिलें सिर्फ कागजों पर चल रही हैं। राजस्व वृद्धि में 2011-12 और 2019-20 के बीच 31 राज्यों में बंगाल 16वें नंबर पर है। 2020-21 में लिये गए कर्ज की बात करें तो आज राज्य में हर बच्चा 50,000 रु. के कर्ज के साथ पैदा होता है। सड़क है कि गड्ढा, पता ही नहीं चलता। बिजली की सेवा भी खस्ताहाल है। एफडीआई में 2011 में बंगाल की हिस्सेदारी एक प्रतिशत थी और अभी भी 1 प्रतिशत ही है। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 36 प्रतिशत की कमी, तो अस्पतालों में बिस्तरों की कमी है। इस क्षेत्र में राज्य 23वें नंबर पर है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों के 39 प्रतिशत तो सर्जन के 87 प्रतिशत स्थान खाली हैं। शहरी विकास के लिए केन्द्र ने जो राशि भेजी है, वह भी खर्च नहीं हो पा रही। 56 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं है। एक लाख की संख्या पर 13 डिग्री कॉलेज हैं।

आयुष्मान योजना को लेकर राजनीति

केंद्र सरकार की ओर से आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को पांच लाख रुपये तक मुफ्त इलाज के लिए आयुष्मान भारत नामक स्वास्थ्य बीमा योजना चलाई जा रही है। देश के करीब 50 करोड़ लोगों को इस योजना का लाभ देने का लक्ष्य है। पश्चिम बंगाल में केंद्र की इस योजना को लागू करने के मामले में भी ममता सरकार पर राजनीति करने का आरोप लगा।

अबतक की  सरकारों पर प्रश्नचिन्ह

भाजपा के नेता जब पश्चिम बंगाल की यह तस्वीर लोगों के सामने रखते हैं तो वामदल,कांग्रेस और ममता बनर्जी सरकारों को लेकर कई सवाल उभर आते हैं। गृह मंत्री अमित शाह आंकड़ों के जरिए बंगाल का पिछड़ापन गिनाते हैं। वे कहते हैं कि आजादी के वक्त देश की जीडीपी में बंगाल का एक तिहाई हिस्सा था। तीन दशक के कम्युनिस्ट और एक दशक के तृणमूल शासन में यह ग्राफ गिरता गया है। न कांग्रेस विकल्प है और न तृणमूल। हम भाजपा के लोग बंगाल को एक बार फिर से शोनार बांग्ला बनाएंगे। वैसे पश्चिम बंगाल लंबे समय से पलायन का दंश सह रहा है। पहले भी काम और रोजगार के लिए बड़ी संख्या में पश्चिम बंगाल से देश के दूसरे राज्यों की तरफ मजदूरों का पलायन होता रहा है, लेकिन ममता बनर्जी के राज में यह और बढ़ा। 2011 की जनगणना के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच बंगाल से 5.8 लाख लोगों का पलायन हुआ, जो टीएमसी के राज में करीब-करीब दुगुना बढ़कर 11 लाख से ज्यादा हो गया है और बंगाल पलायन के मामले में देश भर में चौथे नंबर पर पहुंच गया है।

बंगाल के लिए नई दृष्टि

दरअसल पश्चिम बंगाल एक राज्य का नाम भर नहीं, बल्कि एक ‘जिबोनधारा’ (जीवनधारा) है। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में कहा जाए कि, ‘बंगाल जो आज सोचता है, वही कल भारत सोचता है, इसी से प्रेरणा लेते हुए हमें आगे बढ़ना है।’ 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही भाजपा सरकार के एजेंडे में पश्चिम बंगाल सहित पूर्वी भारत का विकास प्राथमिकता में रहा है और इसका असर बंगाल की भूमि पर देखने को मिल रहा है। मसलन, पश्चिम बंगाल का प्रमुख व्यापारिक और औद्योगिक केंद्र हल्दिया न सिर्फ आत्मनिर्भर भारत का केंद्र बिंदु बन रहा है, बल्कि विश्व मानचित्र पर छाने को तैयार है। बीती फरवरी में ऊर्जा गंगा परियोजना की 348 किमी लंबी डोभी-दुर्गापुर प्राकृतिक गैस पाइपलाइन को राष्ट्र को समर्पित किया गया। गैस आधारित अर्थव्यवस्था का केंद्र बनने जा रहे हल्दिया और पश्चिम बंगाल के विकास की इस तस्वीर को इससे भी समझा जा सकता है कि करीब दो साल पहले खाद्य और पेय पदार्थ से जुड़ी एक नामचीन कंपनी का माल हल्दिया से ही अंतर्देशीय जलमार्ग के जरिए उत्तर प्रदेश के बनारस पहुंचा था। आजादी के बाद यह पहला अवसर था कि जब भारत अपने नदी मार्ग को व्यापार के लिए इस्तेमाल करने में सक्षम हुआ। कंटेनर वेसल चलने से पूर्वी भारत न सिर्फ जलमार्ग के जरिए बंगाल की खाड़ी से जुड़ चुका है, बल्कि लघु उद्योगों, किसानों के उत्पाद, कच्चा माल मंगाने से लेकर उसे तैयार करना और वापस भेजना इस क्षेत्र के लिए सुगम हो गया है। हल्दिया-बनारस के बीच के इस जलमार्ग ने पूर्वी भारत के लोगों के जीवन और कारोबार का तरीका ही बदल दिया है। जीवन और व्यवसाय की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए रेल, सड़क, हवाई अड्डे, बंदरगाहों, जलमार्गों में सूचीबद्ध कार्य के अलावा बंद हो रहे उद्योगों को भी पुनर्जीवित किया जा रहा है। गैस की कमी से इस क्षेत्र में उद्योग बंद हो रहे हैं, इसलिए पूर्वी भारत को पूर्वी और पश्चिमी बंदरगाहों से जोड़ने का निर्णय लिया गया है।


प्रधानमंत्री ऊर्जा गंगा पाइपलाइन, जिसका एक बड़ा हिस्सा फरवरी में राष्ट्र को समर्पित किया गया, से न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि बिहार और झारखंड के 10 जिले लाभान्वित होंगे। इस पाइपलाइन के निर्माण कार्य से स्थानीय लोगों को 11 लाख मानव दिवस रोजगार प्रदान किया गया है। यह रसोईघरों को पाइप द्वारा स्वच्छ तरल पेट्रोलियम गैस-एलपीजी प्रदान करेगी और स्वच्छ कम्प्रैस्ड प्राकृतिक गैस-सीएनजी वाहनों को भी सक्षम करेगी। इससे सिंदरी और दुर्गापुर उर्वरक कारखानों को निरंतर गैस की आपूर्ति हो सकेगी। उज्ज्वला योजना के कारण पूर्वी क्षेत्र में एलपीजी की खपत और मांग दोनों अधिक हैं, इसलिए एलपीजी बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए काम चल रहा है। पश्चिम बंगाल में जिन 90 लाख महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन दिए गए, उनमें एससी / एसटी वर्ग की 36 लाख से अधिक महिलाएँ शामिल हैं। इस योजना का ही असर है कि पिछले छह वर्षों में पश्चिम बंगाल में एलपीजी का उपयोग 41 फीसदी से बढ़कर 99 फीसदी तक पहुंच गया है। अब केंद्र सरकार ने आम बजट में उज्ज्वला योजना के तहत 1 करोड़ से अधिक मुफ्त गैस कनेक्शन प्रदान करने का प्रस्ताव किया है। ऐसे में हल्दिया का एलपीजी आयात टर्मिनल ऊंची मांग को पूरा करने में बड़ी भूमिका निभाएगा। इससे पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर में करोड़ों परिवारों को फायदा होगा क्योंकि यहां से 2 करोड़ से अधिक लोगों को गैस मिलेगी। इन लाभार्थियों में से 1 करोड़ लोग उज्ज्वला योजना के लाभार्थी होंगे।


परिवर्तन की बयार बनी पहचान

दरअसल परिवर्तन की यह बयार नए भारत की पहचान बनकर उभरी है। यह पश्चिम बंगाल को पूर्वी भारत के विकास का केंद्र बिंदु बनाने की दिशा में हो रहे काम का ही परिणाम है कि नेशनल हाईवेज-वाटरवेज, हवाई मार्ग, बंदरगाहों और गांव-गांव तक ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी की दिशा में लगातार काम हो रहा है। लेकिन किसी भी क्षेत्र के विकास में वहां के स्थानीय लोगों का सशक्तीकरण अनिवार्य पहलू होता है। ऐसे में केंद्र सरकार की योजनाओं से लोगों का जीवन भी सुगम (ईज आॅफ लिविंग) हो रहा है। पश्चिम बंगाल में आवास योजना के तहत 30 लाख गरीबों को घर, जनधन योजना में 4 करोड़ गरीबों के बैंक खाते, जल जीवन मिशन के जरिए 4 लाख घरों में पाइप से साफ पानी पहुंचाना और कनेक्टिविटी सुधार के लिए लगातार काम हो रहा है। कोलकाता में ईस्ट-वेस्ट मेट्रो कॉरिडोर के लिए 8,500 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं। यह कॉरिडोर देश में नदी के भीतर चलने वाली पहली मेट्रो सेवा होगा। असल में भाजपा को इस बात का बखूबी अहसास है कि विकास का मुद्दा ही ऐसा मुद्दा है जो वाम दलों, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस, तीनों को कठघरे में खड़ा करता है। इसलिए भाजपा इस बात पर जोर दे रही है कि अगर बंगाल में डबल इंजन की सरकार बनेगी तो विकास रफ़्तार पकड़ेगा, गरीबों का भला होगा। केंद्र की योजनाएं लागू की जाएंगी।


उद्योग विरोधी हैं ममता

खड़गपुर की रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ममता सरकार ने राज्य में उद्योग नहीं लगाए, बल्कि वहां एक ही उद्योग चलता है— माफिया उद्योग। दीदी ने बंगाल को बीते दस साल में लूट-मार दी, कुशासन दिया। उन्होंने कहा कि बंगाल में मजदूर-गरीबों को भी कट मनी देना पड़ता है। असल में ममता बनर्जी की छवि एक उद्योग विरोधी नेता के तौर पर उभरी है। ममता भले ही नंदीग्राम से इस तर्क के साथ चुनाव लड़ रही हैं कि 2007 में उन्होंने वहां किसानों की जमीन का अधिग्रहण किए जाने के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोला था और चुनाव में उन्हें इसका फायदा मिलेगा। लेकिन ममता विरोधियों की दलील है कि उस समय अगर नंदीग्राम में हजारों एकड़ में पेट्रोलियम, केमिकल और पेट्रोकेमिकल हब विकसित हो जाता, तो क्षेत्र के लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलता। उस समय पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और वे उद्योग विरोधी होने की लेफ़्ट की छवि को सुधारना चाहते थे।

वर्ष 2005 में जब केंद्र सरकार ने देश भर में केमिकल हब बनाने की योजना पर विचार किया, तो बुद्धदेव ने पश्चिम बंगाल में इसके लिए पहल की और तय किया गया कि हल्दिया बंदरगाह के पास नंदीग्राम में विशेष आर्थिक क्षेत्र विकसित कर पेट्रोलियम हब बनाया जाए। तत्कालीन राज्य सरकार ने इसके लिए इंडोनेशिया के एक बड़े उद्योग समूह सलीम ग्रुप के साथ निवेश की बात भी पक्की कर ली। लेकिन योजना परवान चढ़ती, इससे पहले ही 2007 में बुद्धदेव के सियासी विरोधियों ने जमीन अधिग्रहण को लेकर किसानों में भ्रम पैदा किया और इसके खिलाफ हिंसक आंदोलन शुरू हो गया। आखिरकार सरकार को फैसला वापस लेना पड़ा। करीब-करीब उसी समय टाटा मोटर्स के पश्चिम बंगाल के सिंगूर में टाटा नैनो कार प्लांट को लेकर विरोध शुरू हुआ।


टाटा मोटर्स करीब एक हजार एकड़ जमीन पर प्लांट लगाने वाली थी, जिसकी अनुमति तत्कालीन लेफ़्ट सरकार ने दे दी थी लेकिन उसके खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया और ममता बनर्जी ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई। आखिरकार 2008 में टाटा मोटर्स ने सिंगूर की बजाए गुजरात में प्लांट लगाने का फैसला कर लिया। इसका श्रेय गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ही जाता है। अगर सिंगूर में नैनो कार प्लांट लग जाता, तो क्षेत्र के लोगों के लिए रोजगार की व्यापक संभावनाएं बन सकती थीं। ममता विरोधी अब ये बातें छेड़कर तृणमूल कांग्रेस को विकास विरोधी करार दे रहे हैं। जाहिर है, पश्चिम बंगाल के इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने विकास को मुद्दा बनाकर राज्य में सत्तारूढ़ ममता सरकार और वर्षो शासन करने वाले वाम दलों और कांग्रेस गठबंधन की जबरदस्त घेराबंदी कर दी है।

पश्चिम बंगाल में केंद्र सरकार का काम

     - केंद्र सरकार की योजनाओं से लोगों का जीवन हुआ सुगम

     - बंगाल में आवास योजना के तहत 30 लाख गरीबों को घर

     - उज्ज्वला के तहत 90 लाख महिलाओं को मुफ्त कनेक्शन

     - जनधन योजना में 4 करोड़ गरीबों के बैंक खाते

     - जल जीवन मिशन के जरिए 4 लाख घरों में पाइप से साफ पानी पहुंचाने का काम

     - कनेक्टिविटी सुधार के लिए लगातार काम

     - कोलकाता में ईस्ट-वेस्ट मेट्रो कॉरिडोर के लिए 8,500 करोड़ रुपये मंजूर

     - एलपीजी गैस की कवरेज 99 प्रतिशत से ज्यादा

     - डोभी-दुगार्पुर प्राकृतिक गैस पाइपलाइन राष्ट्र को समर्पित

     - वित्त वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट में असम और पश्चिम बंगाल के चाय बागानकर्मियों खासकर                      महिलाओं और उनके बच्चों के कल्याण के लिए एक हजार करोड़ रुपये का प्रस्ताव

     - पश्चिम बंगाल में कोलकाता-सिलीगुड़ी के लिए नेशनल हाइवे प्रोजेक्ट का ऐलान

     - बंगाल में राजमार्ग पर 25,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे

     - बंगाल में 675 किमी राजमार्ग का निर्माण

     - प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना पर राजनीति

     - पीएम-किसान योजना के तहत, लघु और सीमांत किसान परिवारों को तीन बराबर किस्तों में                        प्रति वर्ष छह हजार रुपये की सहायता राशि प्रदान की जाती है। बंगाल सरकार ने केंद्र की इस                      योजना को राज्य में लागू करने से इनकार कर दिया था जिसके चलते यहां के लाखों किसान                       केंद्रीय मदद से वंचित रहे।पूरे देश में यह योजना पहले से ही लागू थी, केवल बंगाल में इसे लागू                     नहीं किया जा सका।

चुनौती से बढ़ी चिंता:

बरसों से वामपंथी, सेकुलर बुद्धिजीवी और लीगी कट्टरवादी  तत्व बेरोकटोक भारतीय संस्कृति और साहित्य पर निरंतर चोट करते रहे थे। अब उन्हें  थोड़ी चुनौती मिलने लगी है तो कहने लगे हैं कि देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है


सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और साहित्य पर कुछ लिखने से पहले वामपंथी पत्रिका ‘पहल’ के अंक 106 में प्रस्थापित इस मत का खंडन करना आवश्यक है कि मोदी सरकार के आने के बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर चर्चा तेज हो गई है। ‘सोशल मीडिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ लेख में जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस चर्चा के मूल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देखा है और उनकी स्थापना है कि यह काल्पनिक धारणा है, भिन्नता और वैविध्य का अभाव है तथा एक असंभव विचार है।

यह सारा विचार एवं निष्कर्ष तथ्यों-तर्कों के विरुद्ध है और वामपंथी विचारों की भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी तथा सांस्कृतिक-विरोधी अवधारणाओं को उजागर करता है। वामपंथी न तो भारत राष्ट्र को समझते हैं, न संस्कृति को और न देश की सांस्कृतिक एकता को। वे उस इतिहास को भी नहीं जानते और न जानना चाहते हैं, जिसमें वैदिककाल से आज तक, हजारों वर्षों से एक सांस्कृतिक धारा का निरंतर प्रवाह हो रहा है और भारत की सनातन हिंदू संस्कृति ने देश को एकसूत्र में बांधा हुआ है। भारत को समझने तथा उसकी हिंदू संस्कृति तथा राष्ट्रभाव को समझने के लिए वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत के साथ संपूर्ण संस्कृत साहित्य, मध्ययुग के भक्ति आंदोलन तथा आधुनिक युग के जागरण काल के इतिहास से गुजरना होगा और तभी देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मर्म से साक्षात्कार हो सकेगा। यहां विस्तार से संस्कृत साहित्य की चर्चा तो संभव नहीं है, पर इतना कहा जा सकता है कि राष्ट्र की पहली कल्पना संस्कृत साहित्य से मिलती है और हमारी सांस्कृतिक अवधारणा का स्वरूप भी उसी समय में निर्मित हो चुका था।

भारत एक भू-सांस्कृतिक राष्ट्र है, एक सांस्कृतिक अवधारणा है तथा राजनीतिक रूप से एक इकाई न होने पर भी सांस्कृतिक रूप से हमेशा एक राष्ट्र रहा है। भारत हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व और भारतीयता पर्यायवाची शब्द हैं। हिंदू धर्म का कोई एक पैगम्बर तथा कोई एक ग्रंथ नहीं है। वह बहुलतावादी है, किंतु यह बहुलता एकत्व में अंतर्भूत है। ईश्वर ने भौगोलिक रूप में एक राष्ट्र बनाया है और यहां का सांस्कृतिक जीवन एक रूपात्मक है। अत: यह कहने में कोई गलती नहीं है कि इस एकता में बहुलता और विविधता समाई है।


भारत की सांस्कृतिक एकता तथा एक राष्ट्रीयता का स्वरूप स्पष्ट एवं व्यापक है, लेकिन आश्चर्य होता है कि भारत को बहुराष्ट्रीय महाद्वीप मानने वाले यूरोपियों, वामपंथी इतिहासकारों तथा पंथनिरपेक्षतावादियों को वह दिखाई नहीं देता। असल में ये उसे देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि इस सत्य को स्वीकार करते ही भारत को तोड़ने की उनकी दुरभिसंधि का पर्दाफाश हो जाएगा। मानसिक गुलामी तथा औपनिवेशिक आधुनिकता ने उन्हें एक प्रकार से राष्ट्र एवं संस्कृति-द्रोही बना दिया है, उन्हें इतिहास बोध खो चुका है, सांस्कृतिक स्मृतियां एवं भारत अनुराग क्षीण हो गया है, लेकिन इसकी सांस्कृतिक एकता ने भारत की हस्ती को मिटने नहीं दिया और यथासमय उसका ज्वार, उसका आंदोलन तथा उसकी जागृति होती रही है। आप भक्तिकाल का साहित्य और संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल  की पुस्तक ‘भारत की संत परंपरा और सामाजिक समरसता’ को देखें तो पता चलेगा कि भक्ति आंदोलन ने कैसे हिंदू समाज को भक्ति, अध्यात्म, समरसता तथा जीवनमूल्यों से जोड़े रखा तथा कैसे उन्होंने अत्याचारी मुसलमान शासकों के विरुद्ध संघर्ष किया।

भक्ति ने संपूर्ण देश में हिंदू धर्म को जीवित रखा और इस्लाम के विरुद्ध एक आध्यात्मिक सुरक्षा कवच का निर्माण किया। इस ग्रंथ में देश की 18 भाषाओं के संत साहित्य का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भक्ति आंदोलन ने हिंदू समाज का परिष्कार किया, उसके श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों एवं उसकी सनातनता को चिरंजीवी बनाया। यदि हम आधुनिक युग के जागरण काल को देखें तो उसी प्रकार का राष्ट्रीय जागरण मुख्यत: हिंदू जागरण था तथा एक प्रकार से सांस्कृतिक जागरण था, देश की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के उन्नयन का ही आंदोलन था। राजा राममोहन राय से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक के इतिहास में देश के चारों ओर एक सांस्कृतिक चेतना का तेजी से प्रसार होता है और देश की अस्मिता, स्वतंत्रता, सांस्कृतिक एकता आदि के विचार जनता को मथने लगते हैं।

सारा देश एक तरह से सोचता है, देश में राष्ट्र-भाव उत्पन्न होकर यह विचार उत्पन्न होता है कि हम क्या थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी। इस सांस्कृतिक जागरण में पंथ, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि सभी विभेद गायब हो जाते हैं और राम, कृष्ण, शिवाजी, प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, गीता, भारतमाता, वंदेमातरम् आदि सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। गांधी तो राम को प्रेरणा पुरुष मानते हैं और राम राज्य की स्थापना करना चाहते हैं।

विवेकानंद हों या तिलक या गांधी या भगत सिंह, सभी गीता से शक्ति ग्रहण करते हैं और स्वामी दयानंद वैदिक संस्कृति की स्थापना करते हैं। आप सोचें, टैगोर ने शिवाजी पर कविता लिखी, सुब्रह्मण्यम भारती ने गुरु गोविंद सिंह पर तथा प्रेमचंद ने राणा प्रताप एवं स्वामी विवेकानंद पर लेख लिखे। हिंदी के एक लेखक ने हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्थान का विचार प्रस्तुत किया और जयशंकर प्रसाद ने भारतीय इतिहास से आख्यान लेकर देशभक्ति तथा दासता से मुक्ति का भाव उत्पन्न किया और मैथिलीशरण गुप्त तो हिंदू संस्कृति तथा राष्ट्रीयता के ही आख्यान काव्य लिख रहे थे। ये कुछ उदारहण हैं कि हम भारतीय एक हैं, अनेक होकर भी एक हैं, हमारी संस्कृति, चिंतन, अध्यात्म मूल्य आदि सभी एक हैं और हमारे आदर्श राम, कृष्ण, शिव, चाणक्य, प्रताप, शिवाजी, विक्रमादित्य, शंकराचार्य, तुलसी, कबीर, गांधी आदि राष्ट्रीय महानायक हैं।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के मूल में मुख्यत: हिंदू धर्म, संस्कृति, दर्शन साहित्य के समुच्चय से निर्मित भारतीय अवधारणा तथा पुरातन भारत को आधुनिक रूप में रूपायित करने का संघर्ष था। गांधी के स्वराज्य और राम-राज्य में भारतीय तत्व ही थे, जिसमें सनातन भारतीय संस्कृति एवं जीवन दृष्टि का गहरा प्रभाव था, परंतु स्वतंत्र भारत में नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के कारण स्वाधीनता संग्राम में जो भारत का भावी स्वरूप था, वह परिदृश्य से अदृश्य हो गया और पश्चिम एवं साम्यवादी जीवन दर्शन का प्रभुत्व हो गया। इस कालखंड में भारत, भारतीयता, राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक एकता, हिंदू, हिंदू धर्म आदि शब्द तिरस्कृत और अपमानित बना दिए गए और वामपंथी इतिहासकार, कथित सेकुलर और लीगी कट्टरवादी तत्वों ने देश के सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय आधार पर आक्रमण शुरू कर दिए।

स्वतंत्र भारत के इस भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्रीयता के विरोधी वातावरण में हिंदू शब्द का अर्थ ‘सांप्रदायिक’ तथा ‘कट्टर’ के रूप में प्रचारित किया गया और बहुसंख्यक समाज की दशा अल्पसंख्यक समाज से भी गई-गुजरी हो गई। देश के प्रगतिशील लेखकों को राजाश्रय के साथ रूस का आश्रय मिला और देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों, अकादमियों, पुरस्कारों आदि पर इनका कब्जा हो गया। इन प्रगतिशीलों ने साहित्य की मुख्यधारा, जो सांस्कृतिक राष्टÑीयता की धारा थी, जो वैदिक काल से निरंतर प्रभावित होकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद और दिनकर तक बनी हुई थी, उसे प्रगतिशील साहित्य धारा के रूप में बदल दिया और अब रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि ही साहित्य की मख्यधारा के संस्थापक साहित्यकार बन गए।

इन प्रगतिशीलों की मुख्य धारा में वाल्मीकि, तुलसी, भूषण, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, श्यामनारायण पांडेय, रामकुमार वर्मा, दिनकर, महादेवी, पंत, प्रसाद, अज्ञेय आदि अनेक राष्ट्रीय साहित्यकारों को गायब कर दिया गया। इन वामपंथियों ने तुलसीदास तक को पाठ्यक्रमों से हटा दिया और भक्तिकाल के सांस्कृतिक एवं साहित्यिक जागरण को केवल कबीर तक सीमित कर दिया। इससे बड़ा राष्ट्रद्रोह क्या होगा कि देश की नई पीढ़ी को भारत की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों तथा सांस्कृतिक उत्कर्ष राष्ट्रीय अवधारणा से ही अलग-थलग कर दिया जाए! खैर, अब उन्हें लग रहा है कि चुनौती मिलने लगी है