Sunday, May 10, 2020

स्वाभिमान एवं स्वतंत्रता के प्रेरणा स्रोत हैं महाराणा प्रताप:

स्वाभिमान एवं स्वतंत्रता के प्रेरणा स्रोत हैं महाराणा प्रताप:

महाराणा प्रताप बप्पा रावल की उस परम्परा के प्रतिनिधि शूरवीर रहे हैं, जिन्होंने विदेशी भूमि से आए आक्रमणकारी आततायियों के सामने घुटने नहीं टेके

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भारतवर्ष धर्मवीरों, दयावीरों, दानवीरों एवं कर्मवीरों की जन्मभूमि रही है। यह प्रकृति की सुंदरतम सृजन है। इसकी रक्षा सदैव महर्षियों, ब्रह्मऋषियों, एवं राजर्षियों ने की है। यहां के महात्माओं, महामनाओं, एवं महाराणाओं की अद्भुत कीर्ति रही है। यहां का जीवनदर्शन श्रेयस और प्रेयस रहा है। यहां का प्रत्येक तृण औषधि एवं प्रत्येक अक्षर मंत्र है। यह त्रिनों की शान्ति, दिशाओं की शांति , आकाश की शान्ति, पृथ्वी की शान्ति, सजीव और निर्जीव की शान्ति हेतु प्रार्थना और साधनारत नागरिकों की भूमि रही है। आत्मबोध एवं आत्मशोध से श्रीयुक्त यहां का सामान्य जन भी पहले परोपकार और सर्वोपकार को ही प्राथमिकता देता रहा है। स्वोपकार को तो वह द्वितीयक प्राथमिकता देता रहा है। यह शैव और वैष्णव परम्परा की संस्कृति का अद्भुत संगम स्थल है। ऐसी श्रेष्ठताओं के इस देश में सनातन प्राणशक्ति शास्वत रूप से प्रवाहित होती रही और इस प्रवाह को प्राणमय एवं प्रणमय बनाये रखने का परमदायित्व शीलवान राजपुरुषों का रहा है, जिनको श्रेष्ठ आचार्यों ने संस्कारों के प्रशिक्षण के माध्यम से आत्मयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, एवं सहयोग का स्तंभपुरुष बनाया। ऐसे ही सिद्ध उत्तराधिकारी राजा अपने प्रजा की सर्वांगींण रक्षा करते हुए ‘स्वराज’ ‘सुराज’ एवं ‘स्वतंत्र’ राज्य का बोध कराता था। आधुनिक विश्व के श्रेष्ठतम लोकतंत्र से भी भारत के श्रेष्ठ राजा श्रेष्ठतम प्रजापालक सिद्ध हुए। ऐसे ही राजाओं में भी दृष्टांत योग्य हर्षवर्धन, अशोक, चित्रगुप्त, बप्पा रावल, पृथ्वीराज, राणा सांगा एवं महाराणा प्रताप हुए हैं।

महाराणा प्रताप बप्पा रावल की उस परम्परा के प्रतिनिधि शूरवीर रहे हैं, जिन्होंने विदेशी भूमि से आये आक्रमणकारी आततायियों के सामने घुटने नहीं टेके। उन्होंने भारतीय शौर्य, स्वाभिमान, और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए ही ‘महारण’ लड़ा और आजतक यहां के भारतवंशियों को ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है कि भारत का एक-एक बच्चा, अपने को ‘महाराणा’ ही समझता है, एक-एक बच्ची महाराणा प्रताप की उस बेटी जैसे ही आत्मसम्मान और राष्ट्रसम्मान के लिए सन्नद्ध रहती है, जैसे महाराणा प्रताप जी की पत्नी और बेटी ने महाराणा को सन्धि- पत्र लिखने से रोक लिया था। स्मरण करें कि जंगल में रहते हुए दूब घास की बनी रोटी को उदबिलावके झपट कर खा लेने पर भी अपने कर्मपथ से विपथित नहीं हुए। मेवाड़ की यह घटना और ऐसी स्वाभिमान की गाथा दुनिया में दूसरी नहीं मिलती है। यह था ‘महाराणा’ और ऐसे थे इसके नायक ‘महाराणा’।

महाराणा प्रताप जी ने 1572 ई. में राजगद्दी पर उत्तराधिकारी प्राप्त करने से लेकर लगातार 20 वर्षों तक अकबर से युद्ध करते रहे। इस युद्ध की घड़ी में उन्हें अपने ही कुल तथा जाति के कुलद्रोही एवं राष्ट्रद्रोही लोगों से भी लड़ना पड़ा। एक तरफ़ उनके अपने अनुज शक्ति सिंह प्रारम्भ में राजपूतों को लेकर महाराणा प्रताप के विरुद्ध लड़े तो इसी क्रम में राजामान सिंह जो क्षत्रिय जाति भारतवर्ष के गौरवमयी परम्परा को गिरवी रखकर अकबर की ओर से आकर महाराणा प्रताप से लड़ा। ऐसा प्रतिघात क्रूर इतिहास में यदा- कदा ही मिलता है। महाराणा ने अपनी प्रजा के हित पोषण,राज्य की रक्षा, स्वतंत्रता, स्वाभिमान, और शौर्य के लिए अकथ्य कठिन दिनों का सामना किया तथा समय ऐसा भी आया कि महाराणा को अपनी पत्नी एवं कम उम्र की बेटी के साथ जंगलों में अपना दिन काटनापड़ा था । महाराणा ने कभी भी अपनी मज़बूत आत्मबल को क्षीण नहीं होने दिया । जंगल में फलों को खाकर किसी भी तरह जीवन यापन किया । जंगलों में महाराणा को परिवार के साथ घास की बनी रोटी तक खानी पड़ी। उसी समय महाराणा का पितारूपी हृदय करूणवश अकबर से सन्धि-पत्र लिखने को विवश कर दिया था, परन्तु आदिशक्ति मां दुर्गा स्वरूप महारानी ने उस सन्धि-पत्र को रोक लिया था, तथा और भी प्रेरणादायी चरित्र उस अल्पायु बेटी का उभर कर सामने आया जिसने सन्धि पत्र को फाड़ भी दिया। अब पाठक वृंद आप ही विचार करें की महान कौन था ? वीर कौन था ? वीरांगना कौन थी ?

हल्दीघाटी के युद्ध में ही सरदार झाला ने अपना जीवन गंवा दिया था। राणा के अनुज शक्ति सिंह ने इसी युद्ध में अपनी त्रुटि पर पश्चाताप करते हुए महाराणा प्रताप जी के साथ खड़ाकर अपनी खोई हुई नैतिकता को प्राप्त किया। उनके घोड़े चेतक ने तो अद्भुत स्वामिभक्ति दिखायी जो अविस्मरणीय है। मंत्री भामाशाह ने तो अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ही महाराणा प्रताप जी को सौंप दी थी। साथ देने वालों में मेवाड़ राज्य की जनजाति थी जिनकी राष्ट्रभक्ति से प्रभावित होकर महाराणा प्रताप ने अपने छापामार युद्धकाल में यह व्रत ही ले लिया था कि अपने राज्य की वापसी होने तक वह जंगल में भूमि पर शयन करेंगे तथा पत्तल में ही भोजन करेंगे। इस प्रकार के व्रत और त्याग से ही यह राष्ट्र बच पाया है। भारत के इतिहास के इस शुक्ल पक्ष को तो अभी तक कोई भी शब्द भी हम नहीं दे पाए हैं। दोषपूर्ण झूठाइतिहास पढ़ाना जाना चाहिए। महान तो महाराणा कुल था, मेवाड़ के गिरिजन थे, सरदार आला थे, घोड़ा चेतक था, मंत्री भामाशाह थे तथा सुधरे हुए अनुज शक्ति सिंह थे।

अकबर को ‘महान’ विशेषण से अलंकृत करने वाले इतिहासकारों एवं इस झूठ को दस्तावेज के रूप में अब भी प्रचारित एवं प्रसारित करने वाले विद्वानों से मेरे कुछ प्रश्न हैं। पहला - क्या वह महान इसलिए था कि ‘हरम’ में जाता था, और एक से अधिक विवश नारियों से सम्बंध बनाता था ? दूसरा - क्या वह ‘मीना’ बाज़ार नहीं लगवाता था ? क्या मीना बाज़ार लगवाना महानता का परिचायक है ? तीसरा - क्या वह प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण नहीं करवाता था ? चौथा - क्या वह छल, छद्म एवं पाखण्ड का सहारा नहीं लेता था ? पांचवा - क्या वह पवित्र क्षत्राणियों को जौहर व्रत के अंतर्गत सती होने के लिए विवश नहीं करता था ? छठा - क्या उस दीन-ए- इलाही स्वयं इस्लाम के वसूलों के विपरीत नहीं था ?और सातवां - क्या उसका सम्पूर्ण आचरण घिनौना, क्रूर तथा दानवीय नहीं था ?

इतिहास विध्वंसंकों को एक सुझाव है कि वह कर्नल टॉड की प्रसिद्ध पुस्तक "एनल्सएंडएंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान" अवश्य पढ़ें तथा उसकी स्वीकारोक्ति के हिन्दी अनुवाद को इन पंक्तियों में देखें।

“अरावली की पर्वतमाला में एक भी घाटी ऐसी नहीं है,

जो राणा प्रताप के पुण्य कर्म से पवित्र नहीं हुई हो,

चाहे वहां उनकी विजय हुई या यशस्वी पराजय ”

राजस्थान की महादेवियों का महासतित्व और महाराणा का शौर्य ही भारत के अस्तित्व को बचा पाया है।

पत्रकारिता के पितामह हैं देवर्षि नारद:

पत्रकारिता के पितामह हैं देवर्षि नारद:

देवर्षि नारद के संपूर्ण संचार का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह लोककल्याण के लिए संवाद का सृजन करते थे। देवर्षि नारद सही अर्थों में पत्रकारिता के पितामह हैं

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भारतीय परंपरा में प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक अधिष्ठात्रा देवता/देवी का होना हमारे पूर्वजों ने सुनिश्चित किया है। इसका उद्देश्य प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए कुछ सनातन मूल्यों की स्थापना करना ही रहा होगा। सनातन मूल्य अर्थात् वे मूल्य जो प्रत्येक समय और परिस्थिति में कार्य की पवित्रता एवं उसके लोकहितकारी स्वरूप को बचाए रखने में सहायक होते हैं। यह स्वाभाविक ही है कि समय के साथ कार्य की पद्धति एवं स्वरूप बदलता है। इस क्रम में मूल्यों से भटकाव की स्थिति भी आती है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार हम मूल्यों की पुनर्स्थापना पर विमर्श करते हैं, तब अधिष्ठात्रा देवता/देवी हमें सनातन मूल्यों का स्मरण कराते हैं। ये आदर्श हमें भटकाव और फिसलन से बचाते हैं। हमारा पथ-प्रदर्शित करते हैं। उनसे प्राप्त ज्ञान-प्रकाश के आलोक में हम फिर से उसी मार्ग का अनुसरण करते हैं, जिसमें लोकहित है। इसलिए भारत में जब आधुनिक पत्रकारिता प्रारंभ हुई, तब हमारे पूर्वजों ने इसके लिए दैवीय अधिष्ठान की खोज प्रारंभ कर दी। उनकी वह तलाश तीनों लोक में भ्रमण करने वाले और कल्याणकारी समाचारों का संचार करने वाले देवर्षि नारद पर जाकर पूरी हुई। भारत के प्रथम हिंदी समाचार-पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के लिए संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने देवर्षि नारद जयंती (30 मई, 1826 / ज्येष्ठ कृष्ण द्वितीया) की तिथि का ही चयन किया। हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला रखने वाले पंडित जुगलकिशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर आनंद व्यक्त करते हुए लिखा कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रारंभ होने जा रही है।

ऐसा नहीं है कि पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ही पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा देवता के रूप में देवर्षि नारद को मान्यता दी, अपितु अन्य प्रारम्भिक व्यक्तियों/संस्थाओं ने भी उनको ही संचार का प्रेरणास्रोत माना। जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र ने अपने एक आलेख ‘ब्रह्माण्ड के प्रथम पत्रकार’ में लिखा है- “हमारे यहां सन् 1940 के आस-पास पत्रकारिता की शिक्षा बाकायदा शुरू हुई। लेकिन पत्रकारिता का जो दूसरा या तीसरा इंस्टीट्यूट खुला था, नागपुर में, वह एक क्रिश्चिन कॉलेज था। उसका नाम है इस्लाब कॉलेज। जब मैं नागपुर में रह रहा था तब पता चला था कि उस कॉलेज के बाहर नारद जी की एक मूर्ति लगाई गई थी।” इसी तरह 1948 में जब दादा साहब आप्टे ने भारतीय भाषाओं की प्रथम संवाद समिति (न्यूज एजेंसी) ‘हिंदुस्थान समाचार’ शुरू की थी, तब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने हिंदुस्थान समाचार को जो पत्र लिखा था, उसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि देवर्षि नारद पत्रकारिता के पितामह हैं। पत्रकारिता उन्हीं से शुरू होती है।

हमने दो-तीन उदाहरण इसलिए दिए हैं, क्योंकि भारत में एक वर्ग ऐसा है, जो सदैव भारतीय परंपरा का विरोध करता है। देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श मानने पर वह विरोध ही नहीं करता, अपितु देवर्षि नारद का उपहास भी उड़ाता है। इसके लिए वह जुमला उछालता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पत्रकारिता का ‘भगवाकरण’ करने का प्रयास कर रहा है। इस वर्ग ने त्याग और समर्पण के प्रतीक ‘भगवा’ को गाली की तरह उपयोग करना प्रारंभ किया है। इससे ही इनकी मानसिक और वैचारिक क्षुद्रता का परिचय मिल जाता है। बहरहाल, उपरोक्त उदाहरणों से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि आरएसएस ने देवर्षि नारद को पत्रकारिता का आदर्श या आद्य पत्रकार घोषित नहीं किया है, बल्कि भारत में प्रारंभ से ही पत्रकारिता विद्या से जुड़े महानुभावों ने देवर्षि नारद को स्वाभाविक ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार कर लिया था। क्योंकि यह भारतीय परंपरा है कि हमारे प्रत्येक कार्यक्षेत्र के लिए एक दैवीय अधिष्ठान है और जब हम वह कार्य शुरू करते हैं तो उस अधिष्ठात्रा देवता/देवी का स्मरण करते हैं। पत्रकारिता क्षेत्र के भारतीय मानस ने तो देवर्षि नारद को सहज स्वीकार कर ही लिया है। जिन्हें देवर्षि नारद के नाम से चिढ़ होती है, उनकी मानसिक अवस्था के बारे में सहज कल्पना की जा सकती है। उनका आचरण देखकर तो यही प्रतीत होता है कि भारतीय ज्ञान-परंपरा में उनकी आस्था नहीं है। अब तो प्रत्येक वर्ष देवर्षि नारद जयंती के अवसर पर देशभर में अनेक जगह महत्वपूर्ण आयोजन होते हैं। नारदीय पत्रकारिता का स्मरण किया जाता है।

पिछले कुछ वर्षों में आई जागरूकता का प्रभाव दिखना प्रारंभ हो गया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाली नयी पीढ़ी भी अब देवर्षि नारद को संचार के आदर्श के रूप में अपना रही है। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय (डीएविवि) के पत्रकारिता विभाग के बाहर दीवार पर युवा कार्टूनिस्टों ने देवर्षि नारद का चित्र बनाया है, जिसमें उन्हें पत्रकार के रूप में प्रदर्शित किया है। संभवत: वे युवा पत्रकारिता के विद्यार्थी ही रहे होंगे। डीएविवि जाना हुआ, तब वह चित्र देखा, बहुत आकर्षक और प्रभावी था। इसी तरह एशिया के प्रथम पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर देवर्षि नारद का चित्र एवं उनके भक्ति सूत्र उकेरे गए हैं। विश्वविद्यालय के द्वार पर प्रदर्शित नारद भक्ति सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। दरअसल, उन सूत्रों में पत्रकारिता के आधारभूत सिद्धांत शामिल हैं। ये सूत्र पत्रकारिता के विद्यार्थियों को दिशा देने वाले हैं। पहला सूत्र लिखा है- ‘तल्लक्षणानि वच्यन्ते नानामतभेदात।’ अर्थात् मतों में विभिन्नता एवं अनेकता है। ‘विचारों में विभिन्नता और उनका सम्मान’ यह पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी तरह दूसरा है- ‘तद्विहीनं जाराणामिव।’ अर्थात् वास्तविकता (पूर्ण सत्य) की अनुपस्थिति घातक है। अकसर हम देखते हैं कि पत्रकार जल्दबाजी में आधी-अधूरी जानकारी पर समाचार बना देते हैं। उसके कितने घातक परिणाम आते हैं, सबको कल्पना है। इसलिए यह सूत्र सिखाता है कि समाचार में सत्य की अनुपस्थिति नहीं होनी चाहिए। पूर्ण जानकारी प्राप्त करके ही समाचार प्रकाशन करना चाहिए। एक और सूत्र को देखें- ‘दु:संग: सर्वथैव त्याज्य:।’ अर्थात् हर हाल में बुराई त्याग करने योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहिए। देवर्षि नारद के संपूर्ण संचार का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह लोककल्याण के लिए संवाद का सृजन करते थे। देवर्षि नारद सही अर्थों में पत्रकारिता के अधिष्ठात्रा हैं।