Saturday, July 4, 2020

संघीय ढांचे के समक्ष उभरती चुनौतियां:

संघीय ढांचे के समक्ष उभरती चुनौतियां:

संघीय ढांचे को संविधान की अपेक्षा के अनुसार बनाये रखना राष्ट्रहित में है। यह संतोष की बात है कि गत कुछ वर्षोें से संघीय ढांचा पुन: दृढ़ हो रहा है, परन्तु विदेशी मानसिकता और संबद्धता के कारण इसको कमजोर करने वाली राजनीतिक शक्तियां इस ढांचे को हानि पहुंचा रही हैं

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स्वतंत्रता एवं संविधान की प्राप्ति का महत्व कुछ लोग उत्तरोत्तर कम आंकते जा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण है कि उन्होंने ठीक से भारत का समग्र इतिहास नहीं पढ़ा है। जिन्होंने स्वतंत्रता का संग्राम लड़ा और अपना जीवन मां भारती को अर्पित कर दिया, हमने उनकी शहादत का भी आदर नहीं किया है। इस राष्ट्र में प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रम में क्रमोत्तर विकास के सिद्धांत से भारतीय संस्कृति, औपनिवेशिक काल तथा स्वतंत्रता के इतिहास को अनिवार्य ज्ञानपुंज के रूप में पाठ्यक्रम में तो रखना ही चाहिये था, जो मजबूत इच्छाशक्ति के साथ अभी तक नहीं हो पाया है। एक-दो राष्ट्रीय पर्वों पर स्वरयंत्रों के माध्यम से हम ‘ऐ मेरे वतन के लोगों...’ जैसे मर्मस्पर्शी गानों को सुन तो लेते हैं, लेकिन प्रण के साथ प्राणशक्ति में लेकर हृदयंगम नहीं कर पाते हैं। भारत की वर्तमान लोकतंत्रात्मक संघीय राज्य व्यवस्था लाखों-लाख लोगों के बलिदान के प्रतिफल के रूप में मिली है। आज स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद तथा संविधान को विधिवत आत्मार्पित करने के 70 वर्ष बाद यह मूल्यांकन करना समीचीन प्रतीत होता है कि क्या संघीय ढांचा अपेक्षित दशा में है? क्या यह उचित दिशा में बढ़ रहा है? यदि है, तो संतोष की बात है, परन्तु क्या वर्तमान समय में संविधान में इंगित एवं अपेक्षित संघीय ढांचे के समक्ष कुछ चुनौतियां भी उभरी हैं? हम इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे।

संविधान का मर्म समझें
कुछ लोग बिना गंभीर विमर्श के कह देते हैं कि भारत का संविधान तो मात्र कुछ राष्ट्रों के संविधानों का मिश्रण है। संविधान को मात्र एक पुस्तक के रूप में सरसरी निगाह से देखने पर ऐसा कहा जाता है। परन्तु भारत के संविधान को बनाने में एक विशद् बौद्धिक प्रक्रिया संविधान-सभा द्वारा अपनायी गयी थी। स्वतंत्रता संग्राम में घोर यातनाओं को सहने वाले त्यागी बौद्धिकों की राष्ट्रीय स्तर की संविधान सभा ने बड़े ही परिश्रम, तन्मयता, दूरदर्शिता, स्वातंत्र्य आंदोलन की मौलिक अपेक्षाओं की अनुभूति को ध्यान में रखकर इस संविधान को वर्तमान स्वरूप प्रदान किया। आज विश्व परिदृश्य में भारत का संविधान सारभर्मित एवं सुपारभाषित है। इसी को हमने 26 जनवरी 1950 को अपने संघीय गणराज्य का आधार माना तथा संवैधानिक शपथ ली।

आज आधुनिक नागर समाज के लिए सर्वमान्य संविधान अपरिहार्य है। भारत का संविधान भारतीय जनमानस के सम्यक् विकास के लिए समर्थ शास्त्र एवं शस्त्र है। रही बात इसके उपयुक्त प्रयोग की तो यह तो हम सभी नागरिकों का नैतिक दायित्व है कि हम अपना प्रत्येक आचरण संविधान की आत्मा के अनुरूप ही करें। आज जब हम नागरिक हो गये हैं तो अपने हमने मौलिक कर्तव्य वाले अनुच्छेदों को तो पढ़ लिया है, परन्तु मौलिक कर्तव्य का बोध भी नहीं रखना चाहते। भारत के संविधान का मस्तिष्क है इसकी मूलपीठिका (प्रिएम्बल)। इसी मूल मंतव्य को प्राप्त करने के लिए ‘राज्य’ बनाया गया। राज्य व्यवस्थाओं के अध्येता यह जानते हैं कि दुनिया में लोकतंत्रात्मक राज्य व्यवस्था धीरे-धीरे आयी है तथा इसको प्राप्त करने में अनगिनत प्राणों की आहुति देनी पड़ी है। अत: यह सर्वमान्य है कि लोकतंत्र दुनिया की सर्वाधिक सुसंगत और श्रेष्ठतम राज्य व्यवस्था है। भारत विविधताओं वाला देश प्रारम्भ से ही रहा है। यह विविधता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। इसी विविधता में एकता के दार्शनिक तत्व की सामाजिक-राजनीतिक अपरिहार्यता को दृष्टिगत रखते हुए संविधान निर्माताओं ने संविधान की मूलात्मा की घोषणा में यह स्पष्ट उद्घोषणा की है-‘‘हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा; और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत्, दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’

उपरोक्त उद्देशिका के सूक्ष्म अवलोकन से यह स्पष्ट है कि हम भारतवासियों ने अपने संविधान में समानता (समता), स्वतंत्रता, न्याय एवं भ्रातृत्व (बंधुता) को आदर्श जीवन मूल्य के रूप में स्वीकार करने की शपथ ली है। इन्हीं मूल्यों की प्राप्ति हेतु राज्य व्यवस्था के रूप में लोकतंत्रात्मक गणराज्य की अभिकल्पना रची है तथा संघीय संरचना के माध्यम से भारतीय जनमानस को विकास के पथ पर अग्रसर करने की आकांक्षा की है। संविधान की मौलिक मान्यता के रूप में हमारी पहचान के विभिन्न आयाम हैं और रहेंगे भी, परन्तु सर्वोच्च पहचान एक नागरिक के रूप में ही होनी चाहिए। इसके अनुपालन के अभिभावक के रूप में भारतीय गणराज्य के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति, संसद एवं उच्चतम न्यायालय सर्वोच्च हैं। राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी विपथन को रोकने तथा शुचितापूर्ण संवैधानिक मर्यादाओं का अनुसरण इन्हीं अभिभावक संस्थाओं द्वारा सुनिश्चित होता है। लेकिन क्या वर्तमान संघीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था ठीक प्रकार से संचालित हो रही है?

वर्तमान भारत कई प्रकार की आंतरिक एवं बाह्य विरोधी शक्तियों से जूझ रहा है। शहीदों के बलिदान के उपरान्त मिली स्वतंत्रता की जो समझ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के शुरुआती वर्षों में थी, उसमें शिथिलता आयी है। अति स्वच्छंदता की प्रवृत्ति बढ़ी है। विघटनकारी क्षेत्रीय दलों ने अविवेकपूर्ण एवं स्वार्थपरक समझौते किये हैं। आज एकतरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) है, तो दूसरी तरफ संयुक्त प्रगतिशील संगठन (संप्रग)। भारत की जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया ही है। संघीय ढांचे को संविधान की अपेक्षा के अनुसार बनाये रखना राष्ट्रहित में है। यह संतोष की बात है कि गत कुछ वर्षों से संघीय ढांचा पुन: दृढ़ हो रहा है, परन्तु विदेशी मानसिकता और संबद्धता के कारण इसको कमजोर करने वाली राजनीतिक शक्तियां इस ढांचे को हानि पहुंचा रही हैं। ये शक्तियां निजी स्वार्थ, परिवारवाद एवं वैदेशिक कूटनीति के उपकरण बन जाने के कारण ऐसा कर रही हैं।

संघीय ढांचे के विपरीत आचरण
संघीय ढांचे एवं संविधान के विपरीत आचरण करने वालों ने एक आम नागरिक होने की नैतिकता को भी ताक पर रख दिया है। ‘वन्दे-मातरम्’ नहीं गायेंगे, ‘राष्ट्रगान’ के समय सावधान की मुद्र्रा में खड़े नहीं होंगे, संविधान की प्रति जलायेंगे, धारा 370 एवं 35ए के निरस्तीकरण का विरोध करेंगे, राष्ट्रीय जनसंख्या पंजिका नहीं बनने देंगे आदि जैसे आचरण किसी भी व्यक्ति, समूह, सम्प्रदाय अथवा राजनीतिक दल द्वारा किये जा रहे हैं तो यह उसी संविधान की घोर अवमानना एवं उपेक्षा है जिसके अंतर्गत उन्हें (हमें) नागरिकता, मूल अधिकार एवं मूल कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। 

स्वतंत्रता से पूर्व ही विदेशी शासक अपने कूटनीतिक चातुर्य के अंतर्गत ‘फूट डालो राज करो’ की नीति को और विद्रुुप बनाते हुए विभेदकारी कारकों के प्रति उकसाने लगे थे, जिसका अवांछनीय रूप अब अधिक दिख रहा है। स्वतंत्र भारत में प्रांतों के बीच सीमा विवाद, जल संसाधन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के बंटवारे का विवाद, भाषा विवाद आदि को अनुचित प्रोत्साहन दिया जाने लगा। केन्द्र की सरकार हो अथवा प्रान्त की सरकारें, सबका गठन तो संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत ही हुआ है, परन्तु दुर्भाग्य है कि जिस संविधान की मर्यादाओं के आलोक में एक ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्र प्रधान तक शपथ लेता है, कुछ दल अथवा ताकतें उसी संविधान की धज्जी उड़ाते हुए संविधान के विपरीत आचरण करने लगी हैं। प्रांत की सरकारों का केन्द्र से टकराव की स्थिति में आना उचित कैसे कहा जा सकता है? यह बड़ी साजिश प्रतीत होती है। अति तुष्टीकरण एवं वैदेशिक साठ-गांठ का कहीं न कहीं इसमें योगदान है।

भारतीय चुनाव आयोग के समक्ष राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तुत किये गये अनुबन्ध-पत्रों को एक उच्चस्तरीय समिति द्वारा परखना चाहिए कि दल द्वारा घोषित नीति, वक्तव्य एवं कार्यक्रम भारतीय संविधान के अनुरूप हैं अथवा नहीं। इसी आधार पर किसी दल को मान्यता मिलनी चाहिए। संघीय लोकतंत्रात्मक सम्प्रभु राष्ट्र के लिए यह मूलमंत्र है। राष्ट्र के प्रतीकों, संवैधानिक पर्वों एवं संकल्पों को एक स्वर में आदर के साथ सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, तभी हम प्रगति के पथ पर आगे बढ़ेंगे। वास्तव में संघीय ढांचे की मूल अवधारणा चार स्तम्भों वाली राज्य व्यवस्था पर आधरित है जो गांव, जनपद, प्रांत और राष्ट्र में स्तरीकृत है, न कि विघटित अथवा विभाजित। इस संघीय ढांचे में सबकी समान सहभागिता होनी चाहिए। इसकी चार प्रमुख विशेषताएं सदैव परखी जानी चाहिए-यथा एकता, आंतरिक सुदृढ़ता, समन्वय एवं सामाजिक समरसता। व्यापक संवैधानिक अनुशासनहीनता की स्थिति में केन्द्र्र को कठोर कदम भी अवश्य उठाना चाहिए। 

आवश्यक है कि हम जीवन्तता (जन), गणराज्यबोध (गण) और मनस्विता (मन) की त्रयी को ठीक से आत्मसात करें। तभी संघीय लोकतंत्रात्मक संस्कृति को प्राणवान बना सकेंगे।

आपातकाल एक काला अध्याय: स्वयंसेवकों ने जेल काटी पर झुके नहीं:

आपातकाल एक काला अध्याय: स्वयंसेवकों ने जेल काटी पर झुके नहीं:

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में 25 जून 1975 में उस समय एक काला अध्याय जुड़ गया, जब देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक शिष्टाचार तथा सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश में आपातकाल थोप दिया



आपातकाल के दौरान गिरफ्तार बालासाहेब

उस समय इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी नीतियों, भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा और सामाजिक अव्यवस्था के विरुद्ध सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘समग्र क्रांति आंदोलन’ चल रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्ण समर्थन मिल जाने से यह आंदोलन एक शक्तिशाली, संगठित देशव्यापी आंदोलन बन गया। 

उन्हीं दिनों श्रीमति इंदिरागांधी के खिलाफ चुनाव में ‘भ्रष्ट तौर तरीके’ अपनाने के आरोप में चल रहे एक केस में उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट की इलाहाबाद खंडपीठ ने इंदिरा जी को सजा देकर छह वर्षों के लिए राजनीति से बेदखल कर दिया था। कोर्ट के फैसले से बौखलाई इंदिरा गांधी ने बिना केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सहमति एवं कांग्रेस कार्यकारिणी की राय लिए सीधे राष्ट्रपति महोदय से मिलकर सारे देश में इमरजेंसी लागू करवा दी। इस एकतरफा तथा निरंकुश आपातकाल के सहारे देश के सभी गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों, कई सामाजिक संस्थाओं, राष्ट्रवादी शैक्षणिक संस्थाओं, सामाचार पत्रों, वरिष्ठ पत्रकारों/नेताओं को काले कानून के शिकंजे में जकड़ दिया गया। डीआईआर (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल) तथा मीसा (मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) जैसे सख्त कानूनों के अंतर्गत लोकनायक जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह, प्रकाश सिंह बादल, सामाजवादी नेता सुरेन्द्र मोहन और संघ के हजारों अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को 25 जून 1975 की रात्रि को गिरफ्तार करके जेलों में बंद कर दिया गया। न्यायपालिका को प्रतिबंधित तथा संसद को पंगू बनाकर प्रचार के सभी माध्यमों पर सेंसरशिप की क्रूर चक्की चला दी गई। आम नागरिकों के सभी मौलिक अधिकारों को एक ही झटके में छीन लिया गया।

इस समय देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही एकमात्र ऐसी संगठित शक्ति थी, जो इंदिरा गांधी की तानाशाही के साथ टक्कर लेकर उसे धूल चटा सकती थी। इस संभावित प्रतिकार के मद्देनजर इंदिरा गांधी ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। मात्र दिखावे के लिए और भी छोटी मोटी 21 संस्थाओं को प्रतिबंध की लपेट में ले दिया गया। किसी की ओर से विरोध का एक भी स्वर न उठने से उत्साहित हुई इंदिरा गांधी ने सभी प्रांतों के पुलिस अधिकारियों को संघ के कार्यकर्ताओं की धरपकड़ तेज करने के आदेश दे दिये गए। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने उस चुनौती को स्वीकार करके समस्त भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने का बीड़ा उठाया और एक राष्ट्रव्यापी अहिंसक आंदोलन के प्रयास में जुट गए। थोड़े ही दिनों में देशभर की सभी शाखाओं के तार भूमिगत केन्द्रीय नेतृत्व के साथ जुड़ गए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भूमिगत नेतृत्व (संघचालक, कार्यवाह, प्रचारक) एवं संघ के विभिन्न अनुषांगिक संगठनों जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद एवं मजदूर संघ इत्यादि लगभग 30 संगठनों ने भी इस आंदोलन को सफल बनाने हेतु अपनी ताकत झोंक दी। संघ के भूमिगत नेतृत्व ने गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों, निष्पक्ष बुद्धिजीवियों एवं विभिन्न विचार के लोगों को भी एक मंच पर एकत्र कर दिया। सबसे बड़ी शक्ति होने पर भी संघ ने अपने संगठन की सर्वश्रेष्ठ परम्परा को नहीं छोड़ा। संघ ने नाम और प्रसिद्धी से दूर रहते हुए राष्ट्रहित में काम करने की अपने कार्यपद्धति को बनाए रखते हुए यह आंदोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा घोषित ‘लोक संघर्ष समिति’ तथा ‘युवा छात्र संघर्ष समिति’ के नाम से ही चलाया। संगठनात्मक बैठकें, जन जागरण हेतु साहित्य का प्रकाशन और वितरण, सम्पर्क की योजना, सत्याग्रहियों की तैयारी, सत्याग्रह का स्थान, प्रत्यक्ष सत्याग्रह, जेल में गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की चिंता/सहयोग, प्रशासन और पुलिस की रणनीति की टोह लेने के लिए स्वयंसेवकों का गुप्तचर विभाग आदि अनेक कामों में संघ के भूमिगत नेतृत्व ने अपने संगठन कौशल का परिचय दिया।


इस आंदोलन में भाग लेकर जेल जाने वाले सत्याग्रही स्वयंसेवकों की संख्या डेढ़ लाख से ज्यादा थी। सभी आयुवर्ग के स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी से पूर्व और बाद में पुलिस के लॉकअप में यातनाएं सहीं। उल्लेखनीय है कि पूरे भारत में संघ के प्रचारकों की उस समय संख्या 1356 थी, अनुषांगिक संगठनों के प्रचारक इसमें शामिल नहीं हैं, इनमें से मात्र 189 को ही मात्र पुलिस पकड़ सकी, शेष भूमिगत रहकर आंदोलन का संचालन करते रहे। विदेशों में भी स्वयंसेवकों ने प्रत्यक्ष वहां जाकर इमरजेंसी को वापस लेने का दबाव बनाने का सफल प्रयास किया। विदेशों में इन कार्यकर्ताओं ने ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ तथा ‘फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ के नाम से विचार गोष्ठियों तथा साहित्य वितरण जैसे अनेक कामों को अंजाम दिया।

जब देश और विदेश दोनों जगह संघ की अनवरत तपस्या से आपातकालीन सरकारी जुल्मों की पोल खुलनी शुरु हुई और इंदिरा गांधी का सिंहासन डोलने लगा तब चारों ओर से पराजित इंदिरा गांधी ने संघ के भूमिगत नेतृत्व एवं जेलों में बंद नेतृत्व के साथ एक प्रकार की राजनीतिक सौदेबाजी करने का विफल प्रयास किया था -‘‘संघ से प्रतिबंध हटाकर सभी स्वयंसेवकों को जेलों से मुक्त किया जा सकता है, यदि संघ इस आंदोलन से अलग हो जाए’’ परंतु संघ ने आपातकाल हटाकर लोकतंत्र की बहाली से कम कुछ भी स्वीकार करने से मना कर दिया। इंदिरा जी के पास स्पष्ट संदेश भेज दिया गया -‘‘देश की जनता के इस आंदोलन का संघ ने समर्थन किया है, हम देशवासियों के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते, हमारे लिए देश पहले है, संगठन बाद में’’। इस उत्तर से इंदिरा गांधी के होश उड़ गए।

अंत में देश में हो रहे प्रचंड विरोध एवं विश्वस्तरीय दबाव के कारण आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। इंदिरा जी ने समझा था कि बिखरा हुआ विपक्ष एकजुट होकर चुनाव नहीं लड़ सकेगा, परन्तु संघ ने इस चुनौती को भी स्वीकार करके सभी विपक्षी पार्टियों को एकत्र करने जैसे अति कठिन कार्य को भी कर दिखाया। संघ के दो वरिष्ठ अधिकारियों प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैय्या) और दत्तोपंत ठेंगडी ने प्रयत्नपूर्वक चार बड़े राजनीतिक दलों को अपने दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर एक मंच पर आने को तैयार करा लिया। सभी दल जनता पार्टी के रूप में चुनाव के लिए तैयार हो गए।

चुनाव के समय जनसंघ को छोड़कर किसी भी दल के पास कार्यकर्ता नाम की कोई चीज नहीं थी, सभी के संगठनात्मक ढांचे शिथिल पड़ चुके थे, इस कमी को भी संघ ने ही पूरा किया। लोकतंत्र की रक्षा हेतु संघर्षरत स्वयंसेवकों ने अब चुनाव के संचालन का बड़ा उत्तरदायित्व भी निभाया। ‘द इंडियन रिव्यू’ के संपादक एम.सी. सुब्रह्मण्यम ने लिखा था -‘‘जिन लोगों ने आपात काल के दौरान संघर्ष को वीरतापूर्वक जारी रखा उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों का विशेष उल्लेख करना आवश्यक है। उन्होंने अपने व्यवहार से न केवल अपने राजनीतिक सहयोगी कार्यकर्ताओं की प्रसंशा प्राप्त की वर्ना जो कभी उनके राजनीतिक विरोधी थे उनसे भी आदर प्राप्त कर लिया'।

प्रसिद्ध पत्रकार एवं लेखक दीनानाथ मिश्र ने लिखा था -‘‘भूमिगत आंदोलन किसी न किसी विदेशी सरकार की मदद से ही अक्सर चलते हैं, पर भारत का यह भूमिगत आंदोलन सिर्फ स्वदेशी शक्ति और साधनों से चलता रहा। बलात नसबंदी, पुलिसिया कहर, सेंसरशिप, तथा अपनों को जेल में यातनाएं सहते देखकर आक्रोशित हुई जनता ने अधिनायकवाद की ध्वजवाहक इंदिरा गांधी का तख्ता पलट दिया। जनता विजयी हुई और देश को पुनः लोकतंत्र मिल गया। जेलों में बंद नेता छूटकर सांसद व मंत्री बनने की होड़ में लग गए, परंतु संघ के स्वयंसेवक अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति करके अपनी शाखा में जाकर पुनः संगठन कार्य में जुट गए"।

सच्चाई के लिए लड़ते हुए ही मेरा अंतिम समय आए: श्यामाप्रसाद मुखर्जी

श्यामाप्रसाद मुखर्जी कहते थे सचाई के लिए लड़ते हुए ही मेरा अंतिम समय आए:

श्यामाप्रसाद मुखर्जी शायद अपने दौर के उन नेताओं में से थे जिन्होंने बहुत कम उम्र में राष्ट्रीय राजनीति में स्थान बना लिया था। मात्र 46 वर्ष की आयु में वह स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में उद्योग और आपूर्ति मंत्री बने थे
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कुल 52 साल के छोटे से जीवन में भी डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की उपलब्धियां बहुत अधिक थीं। उनके जीवन की सबसे ऐतिहासिक पहल थी आज की भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन, भारतीय जन संघ, की स्थापना जिसने कई दशकों की यात्रा के बाद भारतीय राजनीति के तौर-तरीकों को बदल दिया है। उनकी दूरदर्शिता की झलक देने वाले इस लक्ष्य को मूर्त रूप देने के लिए वे लंबे समय तक बौद्धिक रूप से सक्रिय रहे थे। घोर तिरस्कार और प्रतिरोध के बीच मात्र 10 लोगों को साथ लेकर उन्होंने जिस विचार का बीज बोया था, वह आज कई दशकों के निरंतर संघर्ष के बाद भारतीय जनता पार्टी के रूप में विकसित होकर 11 करोड़ सदस्यों की भागीदारी वाला ताकतवर धारा में बदल चुका है।

श्यामाप्रसाद मुखर्जी शायद अपने दौर के उन नेताओं में से थे जिन्होंने बहुत कम उम्र में राष्ट्रीय राजनीति में स्थान बना लिया था। मात्र 46 वर्ष की आयु में वह स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में उद्योग और आपूर्ति मंत्री बने थे। इसी के साथ, वह अपने दौर में भविष्य की बातों को पहले ही जान सकने वाले ऐसे व्यक्ति भी थे जिसने हमेशा भारत के राष्ट्रीय हितों और उसकी एकता व अखंडता को अपनी राजनीति में सर्वोच्च महत्व दिया। कोलकाता समेत बंगाल के एक हिस्से को पश्चिमी बंगाल के रूप में भारत का अंग बनाए रखना सुनिश्चित करने के लिए उनका महान और युगांतरकारी प्रयास ऐसी महागाथा है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। बंगाली हिंदुओं को भारत के एक हिस्से में सुरक्षा और गरिमा के साथ जीने का अवसर देने के इस प्रयास में उन्हें तत्कालीन बंगाल के सभी बुद्धिजीवियों तथा सभी राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े नेताओं का व्यापक समर्थन मिला था। जदुनाथ सरकार, आरसी मजूमदार, उपेंद्रनाथ बनर्जी, सुनीति कुमार चटर्जी, और राधाकुमुद मुखर्जी जैसे उस युग के दिग्गज विचारकों, इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और सार्वजनिक हस्तियों ने बंगाल के एक हिस्से को भारत में बचाने रखने के लिए श्यामा प्रसाद के प्रयासों को आगे बढ़ कर एक स्वर से समर्थन दिया था।

इससे उनके लिए व्यापक समर्थन का पता तो चलता ही है, काफी आगे तक का सोच पाने की उनकी क्षमता तथा उनकी राजनीति की व्यावहारिकता का भी पता चलता है। अगस्त 1946 में जिन्ना की सीधे हमले (‘डायरेक्ट ऐक्शन’) की योजना को कोलकाता में अमली जामा पहनाने वाले बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री एचएस सुहरावर्दी के प्रस्ताव पर जब शरत चंद्र बोस जैसे नेता भी एक 'संप्रभु संयुक्त बंगाल' के लुभावने सपने के जाल में फंस गए थे, तब भी श्यामा प्रसाद यह साफ समझ पा रहे थे कि यह बात बंगाली हिंदुओं को फंसाने और अंततः पूरे बंगाल को पाकिस्तान को सौंपने की शरारती चाल भर थी। निरंतर चले राजनीतिक और बौद्धिक आंदोलन के माध्यम से श्यामा प्रसाद ने सुहरावर्दी की योजना को उलट दिया और एक तरह से पाकिस्तान को विभाजित कर दिया। एक बार नेहरू पर किए उनके इस कटाक्ष की बहुत चर्चा हुई थी कि ‘आपने भारत का विभाजन कराया था, जबकि मैंने पाकिस्तान का।’ पश्चिम बंगाल के लोगों को ही नहीं, भारत भर के बंगालियों को इस बात पर निरंतर चिंतन करना चाहिए कि यदि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बलपूर्वक और साहसपूर्वक पश्चिम बंगाल बनाने के अभियान को आगे बढ़ाते हुए सफलता न पाई होती तो उनके भविष्य का क्या हुआ होता।

डॉ. मुखर्जी का एक अन्य महान प्रयास था जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ एकीकरण। इस अभियान में वे जीवित नहीं बच सके थे। उन्होंने पहले ही स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि अगर इस राज्य को औरों से अलग रहने की अनुमति जारी रही, तो यह अलगाववाद के कुत्सित सिद्धांत को फैलाने वाले केंद्र के रूप में विकसित होगा और भारत के राष्ट्रीय हितों और अखंडता के प्रति शत्रुभाव रखने वाली ताकतों के खेल का मैदान बन जाएगा। श्यामा प्रसाद ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि पाकिस्तान और अन्य ताकतों द्वारा विभाजन और चरमपंथ की आग को हवा देने के चलते देश के एक प्रमुख क्षेत्र का ढीलाढाला एकीकरण भविष्य में अलगाव की मांग को भी जन्म देगा। भारत की नियति में उनका दृढ़ विश्वास था और इसीलिए, उन्होंने भारत के एकीकरण के लिए व्यक्तिगत रूप से संघर्ष करने का निर्णय किया। इसी संघर्ष के क्रम में भारत सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और गिरफ्तारी के ही दौरान उनकी मृत्यु हुई हो गई थी। उनके बलिदान ने अलगाववाद, उग्रवाद और अंततः आतंकवाद की चुनौतियों को भारत के लोगों के सामने रखते हुए उन्हें इनके खतरों और इनके कारण भविष्य में आने वाले खतरों के बारे में आगाह कर दिया था। यह उनके बलिदान, अदम्य साहस, अपने दृष्टिकोण पर डटे रहने और भारत की संप्रभुता की रक्षा के मामले में किसी तरह का समझौता करने के लिए तैयार न होने के कारण ही संभव हुआ था कि जम्मू-कश्मीर का महत्वपूर्ण तथा सामरिक और सभ्य हिस्सा आज भी भारत में है। बलिदान की आग में अपनी आहुति देकर ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी सुनिश्चित कर सके थे कि भारत की एकता हमेशा अक्षत रहे। उनकी मृत्यु वीरोचित थी और वह शायद खुद ऐसा ही चाहते थे। एक बार उन्होंने अत्यंत मार्मिकता से लिखा था कि 'मेरी उत्कट इच्छा है कि सचाई के लिए लड़ते हुए ही मेरा अंतिम समय आए।' श्री गुरुजी गोलवलकर उन्हें 'अपनी मातृभूमि के लिए लड़ने वाले उस सच्चे सेनानी के रूप में देखते थे जिसकी मृत्यु ‘कश्मीर के एकीकरण की लड़ाई के अग्रिम मोर्चे पर हुई थी।' वीर सावरकर उन्हें भारत का 'अग्रणी राष्ट्रभक्त, राजनीतिज्ञ और एक जन्मजात सांसद' मानते थे और उन्होंने भारतीय गणतंत्र में कश्मीर के पूर्ण एकीकरण के लिए संघर्ष जारी रखने का आह्वान भी किया था। लेकिन प्रख्यात शिक्षाविद, सार्वजनिक व्यक्तित्व, विचारक, कुछ समय तक संविधान सभा के सदस्य और स्वराज पार्टी के नेता एमआर जयकर की श्रद्धांजलि शायद सबसे अधिक हृदयस्पर्शी और झिंझोड़ने वाली थी। उन्होंने श्री मुखर्जी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, ' अपने ही देश की स्वदेशी सरकार और सरकार में साथी रहे लोगों द्वारा कैद कर जेलखाने में रखा जाना और मृत्यु को प्राप्त करना एक लड़ाकू जीवन के लिए बिलकुल उपयुक्त समाप्ति हैं... उम्मीद की जानी चाहिए कि यह घटना भारत सरकार को उसके व्यवहार की अतियों तथा सभ्य सरकारों द्वारा स्वीकार की जाने वाले निष्पक्षता और न्याय के सभी मानकों की अनदेखी का अनुभव करवाएगी।'

आज, उनकी मृत्यु के 67 साल बाद डॉ. मुखर्जी की अंतिम लड़ाई जीती जा चुकी है। उनके अंतिम संघर्ष का फल तब मिला जब अगस्त 2019 में प्रधान मंत्री मोदी के दृढ़ निश्चय तथा गृहमंत्री अमित शाह द्वारा अत्यंत बुद्धिमत्ता एवं कुशलता से संचालित संसदीय रणनीति के परिणामस्वरूप अनुच्छेद 370 अंततः समाप्त कर दिया गया। मई 2020 में जम्मू और कश्मीर अधिवास अधिनियम के पारित होने से इस एकता को और मजबूती मिली है। यह डॉ. मुखर्जी की दृष्टि और इस क्षेत्र समेत पूरे भारत के लिए उनकी भावना के प्रति श्रद्धांजलि भी है। जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में पूर्ण और अंतिम एकीकरण के लिए डॉ. मुखर्जी का संघर्ष किसी राजनीतिक लाभ के संकीर्ण जोड़-घटाव पर आधारित नहीं था। उनका दृढ़ मत भारत के संविधान में उनके दृढ़ विश्वास तथा इस तथ्य पर आधारित था कि यह संविधान सभी भारतीयों के लिए समान रूप से लागू होना चाहिए और देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कहीं भी निवास करने वाले भारतीय को संविधान-प्रदत्त संभावनाओं का समान रूप से लाभ मिलना चाहिए। उनकी लड़ाई समता, न्याय और सभी क्षेत्रों के लोगों के लिए समान अवसरों के लिए थी। घाटी में कुछ राजनीतिक दलों द्वारा दशकों तक चलाई गई पीड़ित होने और भय की जिस राजनीति के खिलाफ प्रजा परिषद का अंदोलन खड़ा हुआ था और जिसका नेतृत्व डॉ. मुखर्जी ने किया था अंततः अपनी अंतिम परिणति पा गया है। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के लोग अब वास्तव में एक नई दृष्टि के साथ हुई ताजा शुरुआत के परिणाम पाने को उत्सुक हैं।

यद्यपि भारत की असंदिग्ध एकता के सत्य के पक्ष में संघर्ष ने डॉ. श्यामा प्रसाद को शारीरिक रूप से समाप्त कर दिया था, तथापि इसी लड़ाई ने अनंतकाल से चले आ रहे भारत की रक्षा और उसके पोषण के लिए प्रयासरत लोगों की स्मृति में उन्हें अमर बना दिया। 23 जून 1953 को भौतिक रूप से समाप्त हो जाने के 67 साल बाद भी डा. श्यामाप्रसाद हमें निस्वार्थ क्रियाशीलता के लिए प्रेरित करते हैं।