Monday, August 30, 2021

धर्मरक्षक वासुदेव श्री कृष्ण : ''कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन''

श्रीकृष्ण वादक हैं, नर्त्तक हैं, मुरलीधर हैं, चक्रधारी हैं, गीता के प्रवर्त्तक हैं, धर्म-संस्थापक हैं, मर्यादा-स्थापक हैं, निर्बलों के रक्षक, असुरों एवं अधर्मियों के संहारक हैं, वे देश के स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक भी हैं। कथा-काव्यों से लेकर प्रसंगों-प्रवचनों-आख्यानों में उनके समग्र रूप के दर्शन होते है 













सत्य, अहिंसा, करुणा, प्रेम आदि शाश्वत भाव हैं और किसी भी सभ्य समाज में इन मूल्यों को पालित-पोषित करने की परंपरा और प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं। भारत ने तो इन मूल्यों को सदैव ही सर्वोपरि माना। यहां कथाओं-पुराणों, शास्त्रों-संस्कारों, आदर्शों-अवतारों में इन मूल्यों की विशेष संकल्पना व प्रतिष्ठापना देखने को मिलती रही है।

यहां तक कि हमारे सर्वाधिक प्रचलित और आदर्श महानायक श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन में भी हमें इन गुणों के दर्शन होते हैं। परंतु ध्यातव्य यह है कि राम और श्रीकृष्ण लोकमानस के सर्वाधिक स्वीकार्य ईष्ट-आदर्श इसलिए रहे हैं कि उन्होंने अधर्म पर धर्म की, अन्याय पर न्याय की स्थापना के लिए अंतिम सांस तक प्राणार्पण से प्रयास और संघर्ष किया। उन्होंने सज्जन शक्तियों को संगठित कर दुर्जन शक्तियों को परास्त किया। उनका संपूर्ण जीवन ''परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्'' का पर्याय रहा। वे बल-पौरुष-साहस के अधिष्ठाता रहे। उन्होंने केवल शब्दों से ही नहीं, अपितु अपने चरित्र और आचरण से क्लीवता एवं कायरता के स्थान पर पौरुष और पराक्रम का संदेश दिया। युद्ध से पलायन को उद्धत-अभिमुख अर्जुन को श्रीकृष्ण के संदेशों से ही 'धर्म संस्थापनाय' लड़ने की प्रेरणा मिली।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर यह विचार-विश्लेषण समीचीन एवं उपयुक्त ही होगा कि महापराक्रमी-तेजस्वी-नीतिज्ञ-चतुर श्रीकृष्ण का यशोगायन करने के बजाय क्यों अधिकांश कथित साहित्यकारों-कवियों-चिंतकों-कथाकारों ने उनके कोमल एवं रसिक स्वरूप का ही अधिकाधिक चित्रण किया ? क्या श्रीकृष्ण ने केवल कोमल और प्रेमिल भावों को ही जिया ? क्या उनके जीवन एवं व्यक्तित्व को केवल रासलीलाओं की परिधि में आबद्ध कर कथा-कहानियों, काव्यों-साहित्यों, प्रवचनों-आख्यानों में प्रस्तुत करना उनके विराट, बृहत्तर, कर्मयोगी व्यक्तित्व के साथ अन्याय नहीं है ? वीरता के स्थान पर भीरुता और पलायन-वृत्ति के अनुसरण की सामाजिक प्रवृत्ति के पीछे क्या कवियों-चिंतकों-प्रवचनकारों की ये प्रवृत्तियां जिम्मेदार नहीं हैं? क्या इन प्रवृत्तियों ने हमारे समाज एवं युवाओं को वीरता के स्थान पर भीरूता का पाठ नहीं पढ़ाया है ?

अनायास ही यह प्रश्न भी मन को उद्वेलित-व्यथित करता है कि सन 1192 में मोहम्मद गोरी के हाथों निर्णायक एवं अपमानजनक पराजय के पश्चात अपना यह प्राणप्रिय भारतवर्ष लगातार विदेशी आक्रांताओं के पदों के नीचे कुचला जाता रहा और सन 1857 आते-आते तो वह विदेशी साम्रज्यवाद के पूर्णतया अधीन हो गया। परंतु घोर आश्चर्य यह है कि अपमान, प्रताड़ना और गुलामी की उन सदियों में भी तुलसीदास जी जैसे अपवादों को छोड़ दें तो हमारा संपूर्ण भक्ति एवं रीति कालीन साहित्य और चिंतन धनुर्धारी राम के बजाय बांकेबिहारी, रासबिहारी, कुंजबिहारी श्रीकृष्ण के आस-पास ही घूमता-मंडराता रहा। जबकि गुलामी की उन सदियों में वीरता, स्वतंत्रता एवं सुसुप्त राष्ट्रीय व सांस्कृतिक चेतना जागृत करने वाले प्रसंगों को अधिक प्रमुखता से उभारा जाना चाहिए था। तब और कमोवेश आज के विषम, प्रतिकूल एवं अंतर्बाह्य चुनौतियों से घिरे कालखंड में हमें योगेश्वर के रूप में उस महाबली योद्धा श्रीकृष्ण की अधिक आवश्यकता है, जो शिशुपाल-जरासंध जैसे आतताइयों का नाश करता है, अबला एवं दुर्बलों की रक्षा करता है, चाणूर-मुष्टिक और कंस जैसे महाबलियों एवं महा आतताइयों का संहार करता है, और महाभारत के युद्ध में 'शठे शाठ्यम समाचरेत' की नीति का अनुसरण करते हुए धर्म की जीत और अधर्म की हार सुनिश्चित करता है।

मध्यकालीन कवियों-चिंतकों को केवल माखन चुराने वाले, मटकी फोड़नेवाले, वंशी बजाने वाले, श्रीकृष्ण ही याद रहते हैं, पर उन्हें उसी आयु, बल्कि उससे भी छोटी आयु में प्रलंब, धेनुक, कालिया और बक जैसे न जाने कितने असुरों की नकेल कसने वाले श्रीकृष्ण; 'महाभारत' और 'भगवद्गीता' के महानायक और उद्घोषक श्रीकृष्ण-लगभग नहीं के बराबर याद आते! कविता-कहानियों का जनमानस पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। साहित्य यदि समाज का दर्पण है तो समाज भी साहित्य से ही प्रेरणा-संदेश ग्रहण करता है। साहित्य ही उसे आदर्श और जीवन-मूल्य प्रदान करता है। आज समय आ गया है कि जो भूल मध्यकालीन कवियों-साहित्यकारों-चिंतकों से हुई, वर्तमान में उसका परिशोधन-परिमार्जन हो! माना कि लोकमानस कोमल-मधुर-भावपूर्ण प्रसंगों में अधिक रुचि लेता है, पर साहित्य एवं साहित्यकारों का उद्देश्य केवल लोक का रंजन नहीं, चरित्र का गठन और परिमार्जन भी होना चाहिए। और यह तभी संभव होगा, जब वह अपने लोकनायकों का युगीन एवं आदर्श चित्र व चरित्र प्रस्तुत करे।

आज भी वंशी बजैया, रास रचैया, गाय चरैया, लोक लुभैया, माखन चुराने वाले, मटकी फोड़ने वाले कृष्ण-रूप का ही सर्वत्र बोलबाला है। श्रीकृष्ण वादक हैं, नर्त्तक हैं, मुरलीधर हैं, चक्रधारी हैं, गीता के प्रवर्त्तक हैं, धर्म-संस्थापक हैं, मर्यादा-स्थापक हैं, निर्बलों के रक्षक, असुरों एवं अधर्मियों के संहारक हैं, वे देश के स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक भी हैं। कथा-काव्यों से लेकर प्रसंगों-प्रवचनों-आख्यानों में उनके समग्र रूप के दर्शन होने चाहिए

कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी एवं उसके दुष्प्रभावों के इस कठिन कालखंड में उनके ''कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'' संदेश की महत्ता एवं प्रासंगिकता और बढ़ गई है। एक ऐसे दौर में जबकि हमारा देश विस्तारवाद, साम्राज्यवाद, अलगाववाद, आतंकवाद जैसी बड़ी चिंताओं और समस्याओं की चपेट में है। हमें श्रीकृष्ण के पराक्रमी-तेजस्वी-कर्मयोगी-चक्रधारी रूप की महती आवश्यकता है। हमें उनके जैसा ही दूरदर्शी एवं रणनीतिक नेतृत्व भी चाहिए, जो दुष्टों के लिए मारक-संहारक, चतुरों के लिए चतुर तो सज्जनों के लिए कुशल संगठक एवं जीवनदायी उत्प्रेरक और उद्धारक हो

मेजर ध्यानचंद

 जब इस जादूगर की हॉकी स्टिक तोड़ कर जांची गई थी, कि इसमें चुंबक तो नहीं है :










हॉकी के जादूगर पद्मभूषण ‘दद्दा’ मेजर ध्यानचंद खिलाड़ियों के लिए भगवान की तरह हैं। इसीलिए केंद्र सरकार ने खेल के सबसे बड़े पुरस्कार का नाम मेजर ध्यानचंद के नाम पर रखने का निर्णय किया। कुश्ती के शौकीन ध्यानचंद को सेना में सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया। फिर तो ध्यानचंद हॉकी में ऐसे रमे कि दुनियाभर में उनकी कलाई का चमत्कार देखने लोग उमड़ पड़ते थे

हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद अपने खेल से न सिर्फ पूरी दुनिया में चर्चित हैं, वरन वह खिलाड़ियों के लिए भगवान की तरह हैं। ध्यानचंद की महानता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह सबके लिए आश्चर्य का विषय रहता था कि वे दूसरे खिलाड़ियों की अपेक्षा इतने अधिक गोल कैसे कर लेते थे। इसके लिए उनकी हॉकी स्टिक को ही तोड़ कर जांचा भी गया। नीदरलैंड्स में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक तोड़कर यह चेक किया गया था कि कहीं इसमें चुंबक तो नहीं लगा।

भारत के इस महान सपूत को शासन ने 1956 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। उनका जन्मदिवस 29 अगस्त भारत में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।मेजर ध्यानचंद ने 1928, 1932 और 1936 ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया। तीनों ही बार भारत ने ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीता।

हॉकी के जादूगर

1928 में एम्सटर्डम में हुए ओलंपिक खेलों में वह भारत की ओर से सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी रहे। उस टूर्नामेंट में ध्यानचंद ने 14 गोल किए थे। एम्सटर्डम के एक स्थानीय समाचार पत्र में लिखा था, ‘यह हॉकी नहीं बल्कि जादू था, और ध्यानचंद हॉकी के जादूगर हैं।’

इसके बाद 1932 में लॉस एंजेल्स में खेले गए ओलंपिक में भी भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन किया। प्रतियोगिता के फाइनल में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया था। इसमें 10 गोल अकेले मेजर ध्यानचंद ने ही दागे थे। इसके बाद 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की कमान मेजर ध्यानचंद के हाथ में ही थी। फाइनल मैच में भारत ने उस दौर की दुनिया की सबसे सशक्त टीम जर्मनी को 8-1 से हराकर विश्व पटल पर भारत का परचम फहराया था।

सेना में हुए हॉकी के लिए प्रेरित

मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे परन्तु सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये।

वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेंट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था। वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे।

कई बार बदली गई स्टिक

चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य खिलाड़ी तक नहीं जा पाती थी। कई बार उनकी हॉकी की जाँच की गयी कि उसमें गोंद तो नहीं लगी है। अनेक बार खेल के बीच में उनकी हॉकी बदली गयी पर वे तो अभ्यास के धनी थे। वे उल्टी हॉकी से भी उसी कुशलता से खेल लेते थे। इसीलिए उन्हें लोग हॉकी का ‘जादूगर’ कहते थे।

1926 से 1948 तक ध्यानचन्द दुनिया में जहाँ भी हॉकी खेलने गये, वहां दर्शक उनकी कलाइयों का चमत्कार देखने के लिए उमड़ आते थे। ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना के एक स्टेडियम में उनकी प्रतिमा ही स्थापित कर दी गयी। 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय हॉकी से संन्यास ले लिया। कुछ समय वे राष्ट्रीय खेल संस्थान में हॉकी के प्रशिक्षक भी रहे, 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हुआ